क्रांतिकारियों के मुकुटमणि-पं. रामप्रसाद बिस्मिल
क्रांतिकारियों के मुकुटमणि-पं. रामप्रसाद बिस्मिल
काकोरी काण्ड-लखनऊ के निकट एक छोटे गांव काकोरी में 6 अगस्त 1625 में जा रहे राजकोष पर क्रान्तिकारियों द्वारा आक्रमण के कारण यह गांव प्रसिद्ध है। उन दिनों देश में स्वाधीनता का आंदोलन चल रहा था। शस्त्र खरीदने हेतु धन के लिए क्रान्तिकारियों ने ग्रामों में डाके डालने आरम्भ किये किन्तु शीघ्र ही उन्हें विचार आया कि अपने ही देशवासियों को लूट-मारकर आंदोलन चलाने का क्या लाभ, अतः उन्होंने सरकारी कोष लूटने की योजना बनाईकाकोरी बिस्मिल ने इसका नेतृत्व कियाक्रान्तिकारियों पर अभियोग चलाया गया। पं. रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खाँन, रोशनसिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को मृत्यु दण्ड सुनाया गया।
बचपन में कुसंगति का प्रभाव- पं. रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 28 जून 1869 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में श्री मुरलीधर के यहाँ हुआ था। 14 वर्ष की आयु में उर्दू में चौथी कक्षा उत्तीर्ण की। इन्हें पुस्तकें पढ़ने का बहुत लगाव था। पिता द्वारा धन नहीं दिये जाने पर इन्होंने घर में चोरी करना सीख लियारामप्रसाद की कुसंगति से बीड़ी की लत पड़ गईपांचवी कक्षा में दो बाद अनुत्तीर्ण हो गये।
स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं का प्रभाव-पास ही एक मंदिर में नये पुजारी आये थे। वे रामप्रसाद को बहुत चाहते थेधीरे-धीरे रामप्रसाद ने उनकी सत्संग तथा स्नेह के कारण बुरी आदतों को त्याग दिया। मुंशी इन्द्रजीत नामक एक सज्जन ने उन्हें संध्या वन्दन सिखाया तथा आर्यसमाज के विषय में बतायारामप्रसाद स्वामी दयानन्द की 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़कर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने स्वयं को एक वीर पुरुष के रूप में ऊँचा उठाने का संकल्प कर लियाब्रह्मचर्य व्रत का पालन, नियमित व्यायाम तथा संध्या वंदन, सात्विक एवं मितभोजी होने के प्रभाव से इनका शरीर सुन्दर तथा वज्र के समान बलिष्ठ हो गया।
श्रेष्ठ महापुरुषों से सम्पर्क- आर्य समाज के श्रेष्ठ देशभक्त संन्यासी पं. सोमदेवजी के प्रवचनों तथा सम्पर्क से प्रेरित रामप्रसाद ने धर्म, राजनीति, योग आदि का स्वाध्याय किया। देवता स्वरूप भाई परमानन्द की पुस्तक 'तवरीखे हिन्द' से उन्हें प्रेरणा मिली। सन् 1616 में 'लाहौर षड्यन्त्र प्रकरण' में भाई परमानन्द को मृत्युदण्ड का समाचार सुन रामप्रसाद का रक्त खौल उठा। उन्होंने गुरु सोमदेव जी के सानिध्य मे प्रतिज्ञा की कि वे ब्रिटिश सरकार से इन अन्याय का प्रतिशोध लेंगेकांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के लिए लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक को अध्यक्ष चुना गया था। तिलक ने अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष में 'पूर्ण स्वराज्य' की घोषणा की थी। कांग्रेस के नरमपंथी इससे सहमत नहीं थे अतः लखनऊ में तिलक के स्वागत की तैयारी नहीं की गई। एम.ए. के छात्र पं. राम्रपसाद बिस्मिल चुपचाप ले जाये जा रहे तिला गाड़ी के आगे लेट गये तथा गाड़ी रूकने पर अपने युवा साथियों के साथ लखनऊ के मुख्य मार्गों पर बागी में बिठाकर, जिसे युवकों ने ही खींचा था, लोकमान्य तिलक का अद्वितीय जुलूस निकाला।
क्रान्तिकारी जीवन- पं. रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्तिकारी पुस्तकें लिखकर बेचने लगे तथा उस धन को क्रान्तिकारियों के लिए शस्त्र आदि खरीदने हेतु देते थे। अंग्रेजों ने उनकी पुस्तक 'अमरीका ने आजादी कैसे पाई' पर प्रतिबन्ध लगा दिया। प्रतिबंधित पुस्तकें और अधिक बिकने लगी। धीरे-धीरे पं. रामप्रसाद स्वयं क्रान्तिकारी की गतिविधियों से जुड़ गये। जीवन के उतार चढ़ावों के उपरान्त पं. रामप्रसाद का स्वाध्याय तथा लेखन कार्य चलता रहाउन्होंने 'बोल्शेविक क्रान्ति', 'मन की तरंग', 'कैथोरीन', 'स्वदेशी रंग' तथा स्वयं की 'आत्मकथा' आदि पुस्तकें लिखी। वज्र के समान शरीर, अदम्य वीरता का भाव, धर्म और राजनीति की समझ, लेखन प्रतिभा जैसे श्रेष्ठ संस्कार युक्त रामप्रसाद सत्यार्थप्रकाश तथा आर्यसमाज की देन थे। 'वंदेमातरम्' उद्घोष के साथ 16 दिसम्बर 1627 को अमर क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल फाँसी के फन्दे पर झूल गये।