ऋषि दयानन्द की द्रष्टि में सत्य की परिभाषा
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्य की परिभाषा इस प्रकार दी है कि, "जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना, और मानना सत्य कहलाता है।"
महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में सत्य के निर्णय करने की पांच प्रकार की परीक्षाएं बतलाई हैं। इनके आधार पर हम सत्य असत्य का निर्णय कर सकते हैं।
१ - जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो।
२ - जो-जो सृष्टी क्रम के अनुकूल हो।
३ - आप्त अर्थात जो धार्मिक विद्वान, सत्यवादी, निष्कपटियों का संघ, उपदेश के अनुकूल हो।
४ - अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल। और
५ - आठों प्रमाण अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव।
इन परीक्षाओं के द्वारा सत्य और असत्य का निर्णय करके ही हमें सत्य का अनुसरण करना चाहिए।
सत्य चरण के लाभ
"सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्" (योग २/३६)
अर्थात् - मन, वाणी और शरीर से सत्य आचरण के परिपक्व हो जाने पर योगी का कर्म उत्तम फल वाला हो जाता है। और उसके आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर भी यथा योग्य पड़ता है।
सत्य के आचरण से ही सांसारिक सुख और ईश्वर के नित्यानंद की प्राप्ति होती है।
उपनिषद भी कहता है कि, "सत्यमेव जयते नानृतम् "
अर्थात सत्य की सदा जीत होती है असत्य की नहीं। इसलिए सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में सदा विजय और उन्नति को प्राप्त करता है।
उस परमपिता परमात्मा को भी सत्य के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। उपनिषद कहता है कि,
"सत्येन लभ्यस्तपसा ह्योस आत्मा"
महाभारत में आया है कि,
"धर्म: सनो यत्र न सत्यमस्ति "
अर्थात् - जिसमें सत्य ना हो वह धर्म नहीं है। अर्थात धर्म और सत्य एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। सत्य ही धर्म है, और धर्म ही सत्य है। उपनिषद भी इसी तथ्य को स्पष्ट करता है -
"नास्ति सत्यातपरो धर्म: नानृतात्पातकं परम्"
अर्थात् सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है और असत्य से बड़ा कोई पाप नहीं है।
सत्याचरण करने से हम धर्म आचरण ही करते हैं। अर्थात सत्य का आचरण करने से धर्म का आचरण स्वत: ही हो जाता है।
परमपिता परमात्मा भी अपनी अमृत मयि वेद वाणी के द्वारा हमें सत्य के पथ पर बढ़ने का आदेश देता है।
"ऋतस्य पथा प्रेत।" (यजु०७/४५)
अर्थात् - सत्य के मार्ग पर चलो। क्योंकि -
"ऋतस्य पथि वेधा अपायि" ( ऋ० ६/४४/८)
अर्थात् सत्य के मार्ग पर चलने वाले कि वह परमपिता परमात्मा सदैव रक्षा करता है।
इसलिए सत्य के मार्ग का आचरण करने पर, सत्य के मार्ग पर बढ़ने पर ईश्वर की प्राप्ति होती है। और उसकी कृपा हमें प्राप्त होती है। ईश्वर सदा हमारा रक्षक बना रहता है।
ओ३म्