श्रीमद्भगवद्गीता
कर्मयोगी और सांख्ययोगी–दोनोंकी साधना-प्रणालीमें एकता नहीं होती कर्मयोगी गुणों-(शरीरादि-) से मानी हुई एकताको मिटानेकी चेष्टा करता है, इसलिये श्रीमद्भागवतमें 'कर्मयोगस्तु कामिनाम्' (११ । २० । ७) कहा गया है। भगवान्ने भी इसीलिये कर्मयोगी के लिये कर्म करनेकी आवश्यकता पर विशेष जोर दिया है; जैसे-'कर्मोंका आरम्भ किये बिना मनुष्य निष्कर्मताको प्राप्त नहीं होता'
(गीता-तीसरे अध्यायका चौथा श्लोक) 'योगमें आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील पुरुषके लिये कर्म करना ही हेतु कहा जाता है' (गीता-छठे अध्यायका तीसरा श्लोक)। कर्मयोगी कर्मोंको तो करता है, पर उनको अपने लिये नहीं, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये ही करता है; इसलिये वह उन कर्मोंका भोक्ता नहीं बनता। भोक्ता न बननेसे अर्थात् भोक्तृत्व का नाश होनेसे कर्तृत्वका नाश स्वतः हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कर्तृत्वमें जो कर्तापन है, वह फलके लिये ही है। फलका उद्देश्य न रहनेपर कर्तृत्व नहीं रहता। इसलिये वास्तवमें कर्मयोगी भी कर्ता नहीं बनता।
सांख्ययोगीमें विवेक-विचारकी प्रधानता रहती है। वह 'प्रकृतिजन्य गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं' ऐसा जानकर अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता। इसी बातको भगवान् आगे तेरहवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें कहेंगे कि जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकारसे प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और 'स्वयं'-(आत्मा-) को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्वका नाश करता है। कर्तृत्वका नाश होनेपर भोक्तृत्व का नाश स्वत: हो जाता है।