वेद मंत्र
ओउम् हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं धामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्।। ( यजुर्वेद १३|४ )
अर्थात् जो स्वयंप्रकाशरूप है और समस्त जगत का बनाने वाला तथा एकमात्र स्वामी है और जो जगत से पहले भी मौजूद था , बाद में भी रहेगा, वह प्रभु इस पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि समस्त ब्राह्मण्ड को बना कर धारण किये हुए है और निरन्तर सृजन कर रहा है, उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा की ही उपासना हमें करनी चाहिए।
इस मंत्र में परमात्मा को 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है यथा- 'जो हिरण्यानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्तिनिमित्तमधिकरणं स हिरण्यगर्भ:'के अनुसार जो तेज स्वरूप सूर्यादि पदार्थों तथा अन्य सबका गर्भ है याने उत्पत्ति एवं निवास का स्थान है उस परमेश्वर का नाम इसी कारण 'हिरण्यगर्भ' है ।
जो जगत का सृष्टिकर्ता है और जो सबका पालनकर्ता है उस प्रभु की सत्ता (शक्ति ) से ही सब जगत- व्यवहार चल रहा है। जैसे आत्मा के कारण शरीर सक्रिय और जीवित रहता है वैसे ही परमात्मा के कारण यह ब्रह्मण्ड सक्रिय बना हुआ है इसलिए कहा गया है कि 'यत्पिण्डे तद् ब्रह्मण्डे' याने यह शरीर वैसा ही है जैसा ब्रह्मण्ड है । यह उस दयालु प्रभु की कृपा है कि उसे हम भले ही भूल जाएं पर वह हमें नही भूलता। वर्षा की तरह उसका प्रसाद हम पर बरसता ही रहता है।जैसे सूर्य की किरणें हम सब पर एक समान पड़ा करती है ।अब हमारा कर्तव्य है कि हम प्रभु के प्रसाद याने अनुकम्पा को जाने, समझे और माने।जो अपना घड़ा ( याने अपने आप को ) सीधा रखेगा उसका घड़ा प्रभु की अनुकम्पा से उसी तरह भर जायेगा जैसे वर्षा के जल से भर जाता है पर जो औंधी खोपड़ी के लोग अपना घड़ा औंधा करके रखेंगे उनका घड़ा खाली का खाली ही रहेगा। हमें प्रतिपल प्रभु का स्मरण करना चाहिए और उसकी कृपा की ही कामना करनी चाहिए उसकी कृपा से ही सब काम सिद्ध हो जाते है ।
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