गायत्री मंत्र का महर्षि दयानंद सरस्वती जी कृत अर्थ
गायत्री मंत्र का महर्षि दयानंद सरस्वती जी कृत अर्थ
ओ३म् भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
(यजुर्वेद : अध्याय 36, मन्त्र 3)
• अर्थ :
(ओ३म्) यह मुख्य परमेश्वर का नाम है, जिस नाम के साथ अन्य सब नाम लग जाते हैं।
(भूः) जो प्राण का भी प्राण,
(भुवः) सब दुःखों से छुड़ानेहारा,
(स्वः) स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सब सुख की प्राप्ति करानेहारा है,
(तत्) उस
(सवितुः) सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता,
(देवस्य) कामना करने योग्य, सर्वत्र विजय करानेहारे परमात्मा का जो
(वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ ग्रहण और ध्यान करनेयोग्य
(भर्गः) सब क्लेशों को भस्म करनेहारा, पवित्र शुद्ध स्वरूप है,
(तत्) उस को हम लोग
(धीमहि) धारण करें।
(यः) यह जो परमात्मा
(नः) हमारी
(धियः) बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में
(प्रचोदयात्) प्रेरणा करे।
इसी प्रयोजन के लिए इस जगदीश्वर ही की स्तुतिप्रार्थनोपासना करना और इस से भिन्न किसी को उपास्य, इष्टदेव, उस के तुल्य वा उस से अधिक नहीं मानना चाहिए।
[स्रोत : महर्षि दयानंद सरस्वती जी कृत "संस्कारविधि" ग्रंथ का वेदारंभ संस्कार प्रकरण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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