ज्ञानमयी अमृतवाणी
ज्ञानमयी अमृतवाणी
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🌷परमेश्वर ने मानव सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के कर्तव्य- अकर्तव्य का बोध कराने के लिए ऋषियों के पवित्र ह्रदय में वेदों का ज्ञान दिया।
ये वेद विविध ज्ञान-विज्ञान के भण्डार,संस्कृति के आधार,कर्तव्य-अकर्तव्य के बोधक,शुभाशुभ का निर्देश देने वाले,जीवन को उन्नत करने वाले,विश्व हित के सम्पादक,आचार का संचार करने वाले,सुख- शान्ति के साधक, ज्ञान के आलोक का प्रसार करने वाले, आशा के आश्रय, निराशा के विनाशक,परम प्रमाण,धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष के सोपानस्वरूप है।
इसलिए। महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के तीसरे नियम में लिखा है कि " वेद सब सत्य विद्यालयोंका पुस्तक है।वेद का पढ़ना- पढ़ाना और सुनना- सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है ।
वेदों को न जानने वाला मनुष्य परमेश्वरादि पदार्थ विद्याओं को अचछे प्रकार नहीं जान सकता और परमेश्वर को न जानने वाला मनुष्य कभी परमधाम मोक्ष को प्राप्त नही कर सकता ।
परन्तु कालान्तर में जब आलस्य,प्रमाद, लोभ आदि दोषों से बुद्धि में मलिनता आने लगी, तो ऋषियों ने मनुष्यों को सरलता से वेदार्थ के परिज्ञान के लिए, महान प्रयत्न से वेदों की विभिन्न शाखाओं और वेदांगो ( शिक्षा, कल्प, व्याकरण,निरुक्त,छन्द,ज्योतिष) का निमार्ण किया। इसी प्रकार वैदिक सिद्धांतों को व्यवस्थित रूप में सरलता से समझाने के लिए कपिल, गौतम आदि ऋषियों ने उपाड्•गों ( षड्दर्शनो) की रचना की। इन अंगों और उपाड्•गो के बिना वेद को समझना- समझाना दुष्कर ही असम्भव है ।
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