क्या पहले वेद एक था और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किए

 



 


 


क्या पहले वेद एक था और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किए


लेखक- पण्डित भगवद्दत्त बी०ए०


आर्यावर्तीय मध्यकालीन अनेक विद्वान् लोग ऐसा मानते थे कि आदि में वेद एक था। द्वापर तक वह वैसा ही चला आया और द्वापर के अन्त में व्यास भगवान् ने उसके चार अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, विभाग किए।


पूर्व पक्ष
देखिए मध्यकालीन ग्रन्थकार क्या लिखते हैं-
१.  महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजु:सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैलवैशम्पायनजैमिनीसमुन्तुभ्य: कमादुपदिदेश।"
अर्थात्- वेदव्यास को ब्रह्मा की परम्परा से वेद मिला और उसने उसके चार विभाग किए।


२. महीधर का पूर्ववर्ती भट्टभास्कर अपने तैत्तिरीय संहिता-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"पूर्वे भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूयस्थिता वेदा व्यस्ता: शाखाश्च परिच्छिन्ना:।"
अर्थात्- भगवान् व्यास ने एकत्र स्थित वेदों का विभाग करके शाखाएं नियत कीं।


३. भट्टभास्कर से भी बहुत पहले होने वाला आचार्य दुर्ग निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखता है-
"वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु:, सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्त:।"
अर्थात्- वेद पहले एक था, पीछे व्यास रूप में उसकी अनेक शाखाएं समाम्नान हुई।


इस मत का स्वल्प मूल पुराणों में मिलता है। विष्णु पुराण में लिखा है-
जातुकर्णो ऽभवन्मत्त: कृष्णद्वैपायनस्तत:।
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना:।।
एको वेदश्चतुर्धा तु यै: कृतो द्वापरादिषु। -विष्णु पु० ३/३/१९,२०
वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। -मत्स्य पु० १४४/११
अर्थात्- प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही चतुष्पाद वेद चार भागों में विभक्त किया जाता है। यह विभागीकरण अब तक २८ बार हो चुका जी। जो कोई उस विभाग को करता है उसका नाम व्यास होता है।


उत्तर पक्ष
दयानन्द सरस्वती स्वामी इस मत का खण्डन करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास एकादश में लिखा है-
...जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये, यह बात झूठी है। क्योंकि व्यास के पिता, पितामह, [प्रपितामह] पराशर, शक्ति वसिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे।


इन दोनों पक्षों में से कौन सा पक्ष प्राचीन और सत्य है, यह अगली विवेचना से स्पष्ट हो जाएगा।


मन्त्रों में अनेक वेदों का उल्लेख
१- समस्त वैदिक इस बात पर सहमत हैं कि मन्त्र अनादि हैं। मन्त्रों में दी गई शिक्षा सर्वकालों के लिए हैं। अतः यदि मन्त्रों में बहुवचनान्त वेदा: पद आ जाए तो निश्चय जानना चाहिए कि आदि से ही वेद बहुत चले आये हैं। अब देखिए अगला मन्त्र क्या कहता है-
यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व० ४/३५/६
अर्थात्- जिस परब्रह्म में समस्त विद्याओं का भण्डार वेद स्थिर हैं।


२- पुनः-
ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोऽग्नय:।
तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु।। -अथर्व० १९/९/१२
यहां भी वेदा: बहुवचनान्त पद आया है। इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण लिखता है-
वेदा: साङ्गाश्चत्वार:।
अर्थात्- इस मन्त्र में बहुवचनान्त वेद पद से चारों वेदों का अभिप्राय है।


३. पुनरपि तैत्तिरीय संहिता में एक मन्त्र आया है-
वेदेभ्य: स्वाहा।। -७/५/११/२


४. यही पूर्वोक्त मन्त्र काठकसंहिता ५/२ में भी मिलता है।


इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि प्राचीनतम काल से वेद अनेक चले आए हैं।


ब्राह्मण ग्रन्थों का मत
इस विषय में ब्राह्मणों की भी यही सम्मति है। इतना ही नहीं, उनमें तो यह भी लिखा है कि चारों वेद आदि से ही चले आ रहे हैं। माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण काण्ड ११ के स्वाध्याय-प्रशंसा ब्राह्मण के आगे आदि से ही अनेक वेदों का होना लिखा है। ऐसा ही ऐतरेयादि दूसरे ब्राह्मणों में भी लिखा है।


१- काठकब्राह्मण में लिखा है-
चत्वारि शृङ्गा इति वेदा वा एतदुक्ता:।
अर्थात्- चत्वारि शृङ्गा प्रतीक वाले प्रसिद्ध मन्त्र में चारों वेदों का कथन मिलता है।


पुनः-
२- काठ के शताध्य्यन ब्राह्मण के आरम्भ में ब्रह्मौदन प्रकरण में अथर्ववेद की प्रधानता का वर्णन करते हुए चार ही वेदों का उल्लेख किया है-
...आथर्वणो वै ब्रह्मण: समान:...चत्वारो हीमे वेदास्तानेव भागिन: करोति, मूलं वै ब्रह्मणो वेदा:, वेदानामेतन्मूलं, यदृत्विज: प्राश्नन्ति तद् ब्रह्मौदनस्य ब्रह्मौदनत्वम्।
अर्थात्- चार ही वेद हैं। अथर्व उनमें प्रथम है, इत्यादि।


३- गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग १/१६ में लिखा है-
ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे। स...सर्वोश्च वेदान्...।
अर्थात्- परमात्मा ने ब्रह्मा को पृथिवी-कमल पर उत्पन्न किया। उसे चिन्ता हुई। किस एक अक्षर से मैं सारे वेदों को अनुभव करूँ।


उपनिषदों का मत
श्वेताश्वतरों की उपनिषद् मन्त्रोपनिषद् कही जाती है। उसका एक मन्त्र विद्वान्मण्डल में बहुत काल से प्रसिद्ध चला आता है। उससे न केवल व्यास से पूर्व ही वेदों का एक से अधिक होना निश्चित होता है, प्रत्युत सर्गारम्भ में ही वेद एक से अधिक थे, ऐसा सुनिर्णीत हो जाता है। वह सुप्रसिद्ध मन्त्र यह है-
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वे यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। इत्यादि ६/१८
अर्थात्- जो ब्रह्मा को आदि में उत्पन्न करता है और उसके लिए वेदों को दिलवाता है।


हमारे पक्ष में यह प्रमाण इतना प्रबल है कि इसके अर्थों पर सब ओर से विचार करना आवश्यक है।


(क) शंकराचार्य का अर्थ
वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१ पर स्वामी शंकराचार्य लिखते हैं-
ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तरव्यवहारानुसंधानोपपत्ति:। तथा च श्रुति:- यो ब्रह्माणं...इति।
शंकर स्वामी ब्रह्मा से हिरण्यगर्भ अभिप्रेत मानते हैं। यही उनका ईश्वर है। वह मनुष्यों से ऊपर है। उस देव ब्रह्मा को कल्प के आरम्भ में परमेश्वर की कृपा से अपनी बुद्धि में वेद प्रकाशित हो जाते हैं। वाचस्पतिमिश्र 'ईश्वर' का अर्थ धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यातिशयसंपन्न करता है।


वैदिक देवतावाद में ऐसे स्थानों पर 'देव' का अर्थ विद्वान् मनुष्य भी होता है। अतः पहले सर्वत्र अधिष्ठातृ-देवता का विचार करना, पुनः वैदिक ग्रन्थों की तदनुसार संगति लगाना क्लिष्टकल्पना मात्र है। अतः अलमनया क्लिष्टकल्पनया।
ब्रह्मा आदि सृष्टि का विद्वान् मनुष्य है, इस अर्थ में मुण्डकोपनिषद् का प्रथम मन्त्र भी प्रमाण है-
ब्रह्मा देवानां प्रथम: सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।।
यहां पर भी शंकर वा उसके चरण चिन्हों पर चलने वाले लोग देवानां पद के आ जाने से ब्रह्मा को मनुष्येतर मानते हैं। पर आगे 'ज्येष्ठपुत्राय' पद जो पढ़ा गया है, वह उनके लिए आपत्ति का कारण बनता है। क्योंकि अधिष्ठाता ब्रह्मा के पुत्र ही नहीं हैं, तो उनमें से कोई ज्येष्ठ कैसे होगा? इसलिए पूर्व प्रमाण में ब्रह्मा को मनुष्येतर मानना युक्तियुक्त नहीं। इसी ब्रह्मा को आदि सृष्टि में अग्नि आदि से चार वेद मिले।


(ख) श्रीगोविन्द की व्याख्या
वेदान्त सूत्र १/३/३० के शांकरभाष्य की व्याख्या करते हुए श्रीगोविन्द लिखता है-
पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति=गमयति=तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।
यहां भी चाहे उसका अभिप्राय अधिष्ठातृदेवता-वाद से ही हो, पर वह भी वेदों का आरम्भ में ही अनेक होना मानता है।


(ग) आनन्दगिरिय व्याख्या
इस सूत्र के भाष्य पर आनन्दगिरि लिखता है-
विपूर्वो दधाति: करोत्यर्थं। पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।
आनन्दगिरि भी ब्रह्मा को ही वेदों का मिलना मानता है।


चार वेद के जानने से ब्रह्मा होता है। ऐसे ब्रह्मा आदिसृष्टि से अनेक होते आए हैं। व्यास जी के प्रपितामह का पिता भी एक ब्रह्मा ही था। इन सब में से पहला अथवा आदिसृष्टि का ब्रह्मा मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मन्त्र में कहा गया है। उसी उपनिषद् में उसका वंश ऐसा लिखा है-
ब्रह्मा
अथर्वा
अङ्गिर:
भारद्वाज सत्यवाह
अङ्गिरस्
शौनक


यह शौनक, बृहद्देवता आदि के कर्ता, आश्वलायन के गुरु शौनक से बहुत पूर्व का होगा। अतः कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास और पुराण से स्वीकृत प्रथम वेदव्यास से भी बहुत पहले का है। इसी शौनक को उपदेश देते हुए भगवान् अङ्गिरस् कह रहे हैं-
ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:।
जब इतने प्राचीन काल में चारों वेद विद्यमान थे, तो यह कहना कि प्रत्येक द्वापरान्त में कोई व्यास एक वेद का चार वेदों में विभाग करता है, अथवा मन्त्रों को इकट्ठा करके चार वेद बनाता है, युक्त नहीं।


प्राचीन इतिहास में
पूर्व दिए गए प्रमाण इतिहासेतर ग्रन्थों के हैं। हमारा प्राचीन इतिहास रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में मिलता है। इनसे भी प्राचीनकाल के अनेक उपाख्यान अब इन्हीं ग्रन्थों में सम्मिलित हैं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यास एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। उसी के शिष्य प्रशिष्यों ने ब्राह्मणादि ग्रन्थों का संकलन किया। उसी ने महाभारत रचा। उसी के पिता पितामह पराशर, शक्ति आदि हुए हैं। वही आर्यज्ञान का अद्वितीय पण्डित था।


हम अगले प्रमाण महाभारत से ही देंगे। हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ वैसा ही प्रामाणिक है, जैसा संसार के अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ। नहीं, नहीं, यह तो उनसे भी अधिक प्रामाणिक है। यह इतिहास ऋषिप्रणीत है। हां इसके साम्प्रदायिक भाग नवीन हैं।


क- महाभारत शल्यपर्व अध्याय ४१ में कृतयुग की एक वार्ता सुनाते हुए मुनि वैशंपायन महाराज जनमेजय को कहते हैं-
पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तम:।
वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रत:।।३।।
तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।
समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।४।।
अर्थात्- प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था। तब वह न ही विद्या को समाप्त कर सका और न ही वेदों को।


ख- दाशरथि राम के राज्य का वर्णन करते हुए महाभारत द्रोणपर्व अध्याय ५१ में लिखा है-
वेदैश्चतुर्भि: सुप्रीता: प्राप्नुवन्ति दिवौकस:।
हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।२२।।
अर्थात्- राम के राज्य में चारों वेद पढ़े विद्वान् थे।


ग- आदि पर्व ७६/१३ में ययाति देवयानी से कहता है कि मैंने सम्पूर्ण वेद पढ़ा है-
ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेद: श्रुतिपथं गत:।


घ- शान्तिपर्व ७३/५ से भीष्म जी उशना के प्राचीन श्लोक सुना रहे हैं। उशना कहता है-
राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।।७।।
अर्थात्- अथर्ववेद से राजा के सारे काम पुरोहित कराए।


ङ- महाभारत वनपर्व अ० २९ में द्रौपदी को उपदेश देते हुए महाराज युधिष्ठिर एक प्राचीन गाथा सुनाते हैं-
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम्।
गीता: क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।३८।।
क्षमा धर्म: क्षमा यज्ञ: क्षमा वेदा: क्षमा श्रुतम्।
यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति।।३९।।
अर्थात्- महात्मा काश्यप की गाई हुई यह गाथा है कि क्षमा ही वेद हैं।


महाभारत के ये क, ख, घ और ङ प्रमाण कुम्भघोण संस्करण से दिए गए हैं। इनकी तथ्यता का अभी पूरा निर्णय नहीं कर सकते। परन्तु ग और अगला प्रमाण मित्रवर श्री सुखथंकर के प्रामाणिक संस्करण से दिए गए हैं। इसका अभी तक आदि पर्व ही मुद्रित हुआ है, अतः अगले पर्वों के लिए हम इसे देख नहीं सके।
महाभारत आदिपर्व में शकुन्तलोपाख्यान प्रसिद्ध है। राजर्षि दुःषन्त काश्यप कण्व के अत्यन्त सुरम्य आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय का चित्र भगवान् द्वैपायन ने खींचा है। देखो अध्याय ६४ में लिखा है-
ऋचो बह्वृचमुख्यैश्च प्रेर्यमाणा: पदक्रमै:।
शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।३१।।
अथर्ववेदप्रवरा: पूययाज्ञिकसंमता:।
संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।३३।।
अर्थात्- ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ-जन पद और क्रम से ऋचाएं पढ़ रहे थे। और अथर्ववेद में प्रवीण विद्वान् पद, क्रमयुक्त संहिता को पढ़ते थे।


यह कैसा स्पष्ट प्रमाण है। इसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी से सैकड़ों वर्ष पूर्व महाराज दु:षन्त के काल में भी अथर्ववेद की संहिता पद और क्रम सहित पढ़ी जाती थी। यह उस काल का वर्णन है जब वेदों की सम्प्राप्त शाखाएं न बनीं थीं, परन्तु जब मन्त्रों के व्याख्यारूप पाठान्तर आर्यावर्त के अनेक गुरुकुलों में प्रसिद्ध थे, तथा जब ब्राह्मण आदि ग्रन्थों की सामग्री भी अनेक आचार्य-परम्पराओं में एकत्र हो चुकी थी।
इन्हीं वेदों की पाठान्तर आदि व्याख्या होकर आगे अनेक शाखाएं बनीं। तब ये वेद किसी ऋषि प्रवक्ता के नाम से प्रसिद्ध नहीं थे। यही वेद सनातन काल से चले आए हैं। व्यास जी ने अनेक ऋषि मुनियों की सहायता से उन पाठान्तरों को एकत्र करके वेद-शाखाएं बनाई, और ब्राह्मण ग्रन्थों की सामग्री को भी क्रम देकर तत् तत् शाखानुकूल उनका संकलन किया। कई लोग ब्राह्मणादिकों को भी वेद कहते थे, अतः उन्होंने यही कहना आरम्भ कर दिया कि व्यास जी ने ही वेदों का विभाग किया। वेदव्यास जी ने तो ब्राह्मण आदि का ही विभाग किया था। वेद तो सदा से चले आए हैं। वस्तुतः पुराणों में भी इसके विपरीत नहीं कहा गया। वहां भी यही लिखा है कि वेद आरम्भ से ही चतुष्पाद था, अर्थात् एक वेद की चार ही संहिताएं थीं।


[स्त्रोत- वैदिक वाङ्मय का इतिहास]




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