अमर बलिदानी वीर रामनाथ जी
१६ जून जन्म दिवस
अमर बलिदानी वीर रामनाथ जी
डा.अशोक आर्य
हमारे देश में एक रियासत होती थी हैदराबाद| इस रियासत में मुस्लिम निजाम का राज्य था| निजाम हिन्दुओं विशेष रूप से आर्यों के लिए अत्यधिक असहिष्णु और निर्दयी था| उसके राज्य में न तो हिन्दुओं को कोई मंदिर बनाने की आज्ञा थी और न ही उन्हें अपने पुराने मंदिरों की मुरम्मत का ही अधिकार था| हिन्दुओं ने विवाह भी करना होता था तो उन्हें निजाम की आज्ञा की आवश्यकता होती थी| अन्य सामजिक कार्यों के लिए भी कुछ ऐसी ही अवस्था थी | हिन्दुओं ने आर्य समाजियों के नेत्रत्व में खूब संघर्ष किया किन्तु निजाम को झुका नहीं पा रहे थे परिणाम स्वरूप सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के आदेश पर इस निजाम का विरोध करते हुए तथा हिन्दुओं को अपने अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा कर दी| यह सत्याग्रह सन् १९३९ इस्वी में किया गया| इस सत्याग्रह को सफल बनाने के लिए देश भर से आर्यों के दल बढ़-चढ़ कर भाग लेने आने लगे| इस प्रकार के ही एक दल के साथ वीर रामनाथ जी भी सत्याग्रह के लिए आये और शहीद होने का गौरव पाया| आओ आज हम उनके जीवन पर कुछ प्रकाश डालें |
ब्र. रामनाथ जी का जन्म अहमदाबाद, गुजरात के कस्बा असारवा में ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी संवत् १९७३ विक्रमी तदनुसार १६ जून सन् १९१७ इस्वी को हुआ| आपके पिता का नाम मोती भाई रणछोड़ भाई तथा माता का नाम मणि बहन था| आपके पिता सुधारवादी विचारों से युक्त तथा विद्या से प्रेम रखने वाले थे| उनके आठ पुत्र-पुत्रियाँ थीं| पिता की यह दृढ इच्छा थी कि उनका यह पुत्र विद्वान्, आर्य-वैदिक संस्कृति का प्रेमी तथा धर्म सेवक बने| इस हेतु आरम्भ से ही अपने बालक में इस प्रकार के विचार डालने आरम्भ कर दिए| बड़ा होने पर रामनाथ जी को इस उद्देश्य से ही नवसारी के गुरुकुल सूपा में प्रवेश दिला दिया गया|
एक बार अवकाश के दिनों में बालक रामनाथ गुरुकुल से अपने घर अपने पिता के पास आया हुआ था कि गुजरात के वर्सोद क्षेत्र में प्लेग फ़ैल गया| मह्रिषी दयानंद के विचार, पिता से प्राप्त समाज सेवा की शिक्षा और गुरुकुल का विद्यार्थी होने के कारण रोगियों की सहायता के लिए रामनाथ जी का ह्रदय हिलोरें लेने लगा| अत: ब्र.रामनाथ जी ने अपनी बहिन को साथ लिया और रोगियों की सेवा के लिए इस प्रकार आ डटे जैसे किसी युद्ध में आये हों| इस सेवा कार्य से निवृत हो अवकाश समाप्त होने पर आप पुन: गुरुकुल सूपा में शिक्षार्थ लौट गए| यहाँ की दस वर्षीय शिक्षा पूर्ण कर उच्च शिक्षा की अभिलाषा जाग उठी और आपने गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में प्रवेश लिया|
अभी गुरुकुल कांगड़ी में प्रवेश लिए कुछ दिन ही हुए थे कि सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने हैदराबाद में ऐतिहासिक सत्याग्रह के लिए शंखनाद कर दिया| इस सत्याग्रह आन्दोलन के प्रथम सर्वाधिकारी महात्मा नारायण स्वामी जी को बनाया गया| स्वामी जी ने हैदराबाद सत्याग्रह के लिए गुरुकुल में पढ़ रहे ब्रह्मचारियों को सत्याग्रह के लिए आह्वान् किया| ब्र. रामनाथ जी में इस सत्याग्रह में जाने की उत्कट इच्छा थी किन्तु परिवार की स्वीकृति आवश्यक थी| अत: उन्होंने अपने परिवार से स्वीकृति मांगी किन्तु स्वीकृति पत्र का उत्तर समय पर न आने पर भी आपने सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने की तैयारी कर ली| ( एक माँ कभी भी अपनी संतान को संकट में जाता स्वीकार नहीं कर सकती ) सब जानते थे कि निजाम राज्य में जाकर सत्याग्रह करना परलोक जाने के सामान है और परलोक में तो धर्म ही साथ जाता है| शेष सब कुछ तो यहीं रह जाता है| फिर रामनाथ जी तो आर्य समाज के एक उदीयमान नक्षत्र थे| वह अपने ऊपर मह्रिषी दयानंद का अत्यधिक ऋण मानते थे| इस ऋण से उऋण होकर ऋषि तर्पण करने का इससे उत्तम कोई अन्य अवसर मिलने वाला नहीं था| फिर आर्य समाज की सेवा ही जिस वीर ने अपना धर्म बना रखा था, उस सेवा के अवसर से वह कैसे विमुख हो सकते थे? धर्म शास्त्रों का उपदेश है कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करो किन्तु केवल उन आज्ञाओं का, जिनसे धर्म की रक्षा हो, दूसरों को सुख मिले तथा जिसमें परोपकार दिखाई दे| धर्म के इस उपदेश को ही सामने रखते हुए ब्र. रामनाथ जी ने हैदराबाद सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने का निर्णय किया| रामनाथ जी इस बात को भी भली प्रकार से जानते थे कि जीवन क्षण-भंगुर है| मानव के इस क्षण-भंगुर जीवन में सौभाग्य के अवसर बार-बार नहीं आते| इस प्रकार जो निर्णय लिया, उसके अनुरूप ब्र. रामनाथ जी ने अपने अन्य साथियों के साथ सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के लिए हैदराबाद के लिए प्रस्थान किया|
गुरुकुल कांगड़ी के इस सत्याग्रही जत्थे ने महात्मा नारायण स्वामी जी के नेत्रत्व में उनके ही साथ सत्याग्रह करना था किन्तु यथा समय न पहुंच पाने के कारण उन्होंने सीधे हैदराबाद जा कर सत्याग्रह किया| सत्याग्रह के लिए अपने आपको पुलिस के सामने पेश किया तथा पुलिस ने इस समूह को तत्काल गिरफ्तार कर लिया| इन सब को निजाम की और से सजा होने पर हैदराबाद की जेल भेजा गया किन्तु बाद में इन्हें वारंगल की जेल में भेज दिया गया|
जेल के कैदियों से दुर्व्यवहार और अमानवीय यातनाएं देने के लिए निजाम चहुंदिशाओं में प्रसिद्ध था| इस प्रकार दी जाने वाली असहनीय यातनाओं की चर्चा मात्र सुनकर ही आज भी साधारण व्यक्ति का ह्रदय भय से काँप उठाता है| फिर यह तो स्वयं यातनाओं का समना कर रहे थे| यह गुरुकुल के ब्रह्मचारी थे, वीर थे, यातनाओं का सामना करने की इनमें शक्ति थी किन्तु कहाँ तक! गुरुकुल के इन छोटे-छोटे ब्रह्मचारियों को जो भयंकर यातनाएं दी गईं , उनकी चर्चा सुनकर हृदय दहलने लगे| परीक्षा की इस दुखद घडी में गुरुकुल कांगड़ी से आये इन वीर सैनिकों ने बड़े साहस से यह यातनाएं सहन कीं| हैदराबाद कीय जेलें कोई साधारण जेलें तो थी नहीं| रियासती और निजामी जेलें थी, इसके साथ ही साथ यह धर्म की लड़ाई थी| एसी अवस्था में किस प्रकार का भोजन मिलेगा, इस सब का तो सब सत्याग्रहियों को पहले से ही अनुमान था| अत: हैदराबाद निजाम से मिलने वाली यातनाओं का सामना करते हुए यहाँ आकर जिसने भी सत्याग्रह किया, उसने आन्दोलन में भागा लेने से पूर्व ही अपने सिर पर कफ़न बाँध लिया था और कफ़न बांधने के बाद ही सत्याग्रह के लिए अपने स्थान से रवाना हुआ था| मानो वह मौत का आलिंगन करने जा रहा हो| इसलिए इस अवस्था में भी कोई भयभीत नहीं था और अत्याचारी निजाम के प्रत्येक अत्याचार का सब लोग मिलकर डटकर सामना कर रहे थे|
अत: ब्रहमचारी रामनाथ जी ने भी अपने अन्य सह्योगियाँ के साथ मिलकर यह सब यातनाएं हंसते-हंसते सहन कीं| जैसे प्रतिदिन जेल का मलमूत्र उठाना, बंद कमरों में अन्य कैदियों के साथ मिलकर जेल के अधिकारियों से होने वाली पिटाई को सहन करना, धर्म के नाम पर हमारे देवी-देवताओं और आराध्य देवों को दी जा रही गन्दी–गन्दी गालियों को सहन करना, इस प्रकार के ही अन्य अनेक दारुण दु:खों को सहना, इन सब के दैनिक जीवन का भाग बन गया परन्तु ह्रदय से परम पिता परमात्मा का विशवास, धर्म की विजय का विश्वास और धर्म पर मर-मिटने का उत्साह किसी में भी कम न हुआ| इस प्रकार के यातना पूर्ण जीवन के छ: महीने बीत गए| परीणाम स्वरूप आर्यों का तप, त्याग, साहस, वीरता के आगे निजाम अधिक समय तक न ठहर सका और निजाम को झुकने के लिए , घुटने टेकने के लिए बाध्य होना पडा| आर्यगण विजयी होकर जेलों से छूटने लगे तथा विजयश्री की माला गले में पहने अपने घरों को लौटने लगे|
हैदराबाद में मिली सफलता की पूरे देश के प्रत्येक कोने में ख़ुशी ही ख़ुशी दिखाई दे रही थी| न केवल आर्य समाजी लोग ही अपितु दूसरे लोग भी आर्यों के पास आकर उन्हें बधाइयां दे रहे थे| अब हिन्दुओं के अन्दर एक नए साहस से भरे नए रक्त का संचार होने लगा| जिस प्रकार अन्य सब सत्याग्रही हैदराबाद की जेल से छूट कर अपने-अपने घर आ गए, ऐसे ही हमारे कथानायक ब्र. रामनाथ जी भी निजाम की जेल से छूटकर अपने साथियों सहित घर आ गये किन्तु जेल की अनियमितताओं, यातनाओं तथा खाने में रेता-कंकर आदि मिलाकर देने के कारण उन्हें जेल में ही स्वास्थ्य की जो हानि हुई तथा जेल से एक भयंकर रोग साथ लेकर घर आये उस से उबर न सके| जेल में उन्हें जो विषम ज्वर का रोग हुआ था तथा जेल अधिकारियों ने जिस रोग का सही से इलाज नहीं करवाया था, जेल से छूटकर घर पहुँचने पर मात्र दो सप्ताह में इस रोग ने भयंकर रूप ले लिया और इस रोग के कारण दिनांक ८ सितम्बर सन् १९३९ इस्वी को आप शहीद हो गए| जब वह मृत्यु के आगोश में जा रहे थे तो भी उनके चहरे पर इस बात की ख़ुशी झलक रही थी कि Mहैदराबाद की परीक्षा में वह सफल होकर घर लौटे थे|
डा. अशोक आर्य
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