हठयोग की भ्रांतियों का निराकरण 


 



 


 


 


हठयोगकीभ्रांतियोंकानिराकरण 


योग का परिचय  और अधिक जानकारी के लिएWatapp 9811679898


  महर्षि पतञ्जलि ने "योग दर्शन" की रचना आज से लगभग ७०००वर्ष पूर्व की, जिसका उद्देश्‍य विवेकशील मनुष्‍यों को आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने का उपाय दर्शाना था, जो आगे चलकर "पतञ्जलि योग" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 'योग' कहते हैं – जुड़ने को, जिसका अंग्रज़ी भाषा में शब्‍द है Yoke, Conjunction या To join अर्थात् जुड़ना। दार्शनिक भाषा में "आत्‍मा का परमात्‍मा से जुड़ने का नाम 'योग' है"।


'योग-विद्या' का प्रचलन हमारे आर्यवर्त देश (आधुनिक भारत) के सभी गुरुकुलों में प्राचीन काल से जारी रहा है और इस विद्या को सीखने के लिये समस्‍त भू-मण्‍डल से जिज्ञासु विद्यार्थीगण हमारे देश में आते रहते हैं। वर्तमान में भी भारत के अनेक गुरुकुलों में वैदिक शिक्षा के साथ-साथ "पतञ्जलि योग" की शिक्षा प्रदान की जाती है।


#पतञ्जलि योग के आठ अंग(वरदान केयर)


               पतञ्जलि योग: योग के आठ अङ्ग (भाग/स्‍तर/सी़‍ढि़याँ) हैं – जिसे "अष्‍टाङ्ग योग" कहते हैं। योग के अंगों को क्रम से अपने जीवन में धारण करने से अंतिम स्‍तर पर पहुँचा जा सकता है। "पतञ्जलि योग" के आठ अङ्ग इस प्रकार हैं: 


यम
(अहिन्‍सा, सत्‍य, अस्‍तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह –        
                                                      योग॰ 2/30), 


नियम
(शौच, सन्‍तोष, तप, स्‍वाध्‍याय और ईश्वरप्रणिधान - 
                                                      योग॰ 2/32),


आसन (योग॰ 2/46),


प्राणायाम (योग॰ 2/49),


प्रत्‍याहार (योग॰ 2/54),


धारणा (योग॰ 3/1),


ध्‍यान (योग॰ 3/2)


समाधि (योग॰ 3/3)
                
1. #यम :-


1. अहिंसा – मन, वाणी और कर्म से पीड़ा त्याग, वैरवर्तन का त्याग। शब्दो से, विचारों से और कर्मो से किसी को हानि नहीं पढ़ना।


2. सत्य – मन, वाणी और कर्म से सत्य का सेवन, अर्थात सत्यविचार, सत्यभाषण और सत्कर्म करना। परम सत्य में स्थिर रहना, विचारों में सत्यता। 


3. अस्तेय – दूसरे के धन का अपहरण (चुराना आदि) न करना। चोर प्रवृति का होना ।


4. ब्रह्मचर्य – चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना।


5. अपरिग्रह – त्यागभाव से वर्तना- ये पांच यम कहाते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।


2. #नियम :-


1. शौच  – शरीर, अन्न, वस्त्र और स्थान की शुद्धि।


2. संतोष –कार्य करते रहना और फल पर निर्भर न रहना अर्थात संतोष करना।


3. तप  –निज लक्ष्य, स्वकर्तव्य और धर्मानुष्ठान को कष्ट आने पर भी न त्यागना, उसके लिए सदा निरालसी होकर पुरुषार्थ  करते रहना।


4. स्वाध्याय – धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना। व स्वयं का निरंतर आंकलन करना की हम ईश्वर की आज्ञाओं  का कितना पालन कर पा रहे।


5. ईश्वरप्रणिधान-   सर्व प्रकार से अपने आपको ईश्वर के अर्पण करके उपासना-मार्ग पर चलना।उपर्युक्त यम और नियमों का सेवन सदा करते रहना चाहिए, ये व्रताभ्यास हैं। 


#3. #आसन :-


योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रणयोगासन बहुत सारे हैं।
जैसे :-
  चक्रासन, भुजंगासन, धनुरासन, गर्भासन, गरुड़ासन, गोमुखासन, हलासन, मकरासन, मत्स्यासन, पद्मासन, पश्चिमोत्तासन,  सिंहासन, शीर्षासन, सुखासन, वज्रासन, योगमुद्रासन, गौरक्षासन, मयूरासन, शवासन आदि।


4. #प्राणायाम :-


सांस लेने संबंधी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण करने वाले प्राणायाम भी बहुत सारे है। जैसे- कपालभाति प्राणायाम, ब्रह्य प्राणायाम, अनुलोम-प्रतिलोम प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम आदि। 


5. #प्रत्याहार:-


इंद्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार योग का पांचवा चरण है । योग मार्ग का साधक जब यम नियम रखकर एक आसन में स्थिर बैठ कर अपने वायु रूप प्राण पर नियंत्रण सीखता है, तब उसके विवेक को ढकने वाले अज्ञान का अंत होता हैं। तब जाकर मन प्रत्याहार और धारणा के लिए तैयार रहता है चेतना, मन और शरीर से ऊपर उठकर अपने स्वरूप में रुक जाने की स्थिति है प्रत्याहार। प्रत्याहार का अर्थ है- एक ओर आहरण यानी खीचना ।


6. #धारणा :-


एकाग्रचित होना धारण अष्टांग योग का छठा चरण हैं। इसके पहले के पांच चरण योग में बाहरी साधन माने गए हैं। धारणा का अर्थ है- थामना, संभालना या सहारा देना । धारणा में चित को स्थिर कण्व के लिए एक स्थान दिया जाता हैं योगी मुख्यतः ह्रदय के बीच में, मष्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी में विभिन्न चक्रों पर मन की धारणा करता है। धारणा के सिद्ध होने पर योगी के के लक्षण प्रकट होने लगते है- देह स्वस्थ होती है। ,गले का स्वर सुधरता है।, योगी की हिंसा भावना नष्ट हो जाती है।, योगी को मानसिक शांति और विवेक प्राप्त होता हैं।, आध्यातमिक अनुभूतियां होती है। इत्यादि।


7. #ध्यान :-


निरंतर ध्यानयोग साधना का सातवां चरण है ध्यान। योगी प्रत्याहार से इंद्रियों को चित में स्थिर करता हैं व धारणा द्वारा उसे एक स्थान पर बांध लेता है। इसके बाद ध्यान की स्थिति आती है। धारणा की निरंतरता ही ध्यान है। ध्यान की उपमा तेल की धारा से की गई है। जब वृत्ति समान रूप से अविछिन्न प्रवाहित हो मतलब बीच में कोई दूसरी वृत्ति ना आये उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। धारणा ओर ध्यान से प्राप्त एकाग्रता चेतना को अहंकार से मुक्त करती है। सर्वत्र चेतनता का ओरण बोध समाधि बन जाती है।  


8. #समाधि :-


आत्मा से जुड़ना, चैतन्य की अवस्था अष्टांगयोग की उच्चतम सोपान समाधि है। यह चेतना का वह स्वर है जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है। योगशास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है। समाधि अनुभूति की अवस्था है वह शब्द, विचार व दर्शन से परे है।
#पतञ्जलि_योग की आवश्यकता


यदि मनुष्‍य (आत्‍मा) विशुद्ध सुख (अर्थात् दुःख-रहित सुख अर्थात् आनन्‍द) को प्राप्‍त करना चाहता है तो उसे उपरोक्‍त आठ अंगों का अभ्‍यास करना चाहिये – तभी उसको समाध्‍यावस्‍था में पहुँचने पर आत्‍मा-परमात्‍मा का साक्षात्‍कार होने लगता है और आनन्‍द की अनुभूति होती है। यही पतञ्जलि योग की उपलब्धि है जिसमें आत्‍मा और परमात्‍मा के स्‍वरूप को जाना जा सकता है।


ईश्‍वर-प्राप्ति का और कोई उपाय/मार्ग नहीं है और यही मनुष्‍य जीवन का परम लक्ष्‍य है।


          मनुष्‍य के चित्त पर निम्‍नलिखित चौबीस प्रकार के प्रभाव पड़ते ‍हैं जिन का सीधा प्रभाव उसके स्‍वास्‍थ पर पड़ता है, वे हैं - 


पाँच विघ्‍न


दु:ख, दौर्मनस्‍य, अंगमेजयत्‍व, श्‍वास और प्रश्‍वास   
                                                       योग:1/39


नौ विक्षेप


व्‍याधि, स्‍त्‍यान, संशय, प्रमाद, आलस्‍य, अवरति, भ्रांतिदर्शन, अलब्‍ध-भूमिकत्‍व और अनवास्थि तत्व


पाँच क्‍लेश


अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश 
                                                        योग:2/3


पाँच वृ‍त्तियाँ


प्रमाण, विपर्य, विकल्‍प, निद्रा और स्‍मृति 
                                                       योग: 1/6


    ईश्‍वरोपासना के लिये स्‍वस्‍थ्‍य (निरोगी) शरीर का होना परमवाश्‍यक है, क्‍योंकि स्‍वस्‍थ शरीर में ही स्‍वस्‍थ आत्‍मा रहता है या इसे यूँ भी कह सकते हैं कि स्‍वास्‍थ्‍य ठीक होने पर ही ईश्‍वर की उपासना की जा सकती है अन्‍यथा नहीं। शरीर को निरोग और चुस्‍त रखने के अनेक उपाय हैं जैसे सात्विक आहार-विहार का होना बहुत ज़रूरी है। सात्विक खान-पान के साथ शारीरिक व्‍यायाम भी ज़रूरी है। स्‍वस्‍थ और सुन्‍दर रहना कौन नहीं चाहता? यह सत्‍य है कि मात्र प्राणायाम से अनेक मानसिक रोग ठीक हो जाते हैं और शरीरिक व्‍यायाम से शरीर गठीला बनता है तथा उसमें स्‍फ़ूर्ति आती है और शरीर को अनेक रोगों से बचाया जा सकता है। 


यह कुछ हद तक तो सत्‍य है परन्‍तु पूर्णरूपेण सत्‍य नहीं है क्‍योंकि मन, शरीर और आत्‍मा को पूर्ण रूप से स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये और भी अनेक बातों का ध्‍यान रखना आवश्‍यक है जैसे - शुद्ध आहार-विहार के साथ शुद्ध विचार, सत्‍याचरण तथा ठीक-ठीक समय पर चिकित्‍सा। इन के अतिरिक्‍त यम और नियमों का पालन करना, परमात्‍मा की स्‍तुति, प्रार्थना, उपासनादि करना। शरीर स्‍वस्‍थ हो और मन में अशान्ति हो तो क्‍या वह मनुष्‍य स्‍वस्‍थ कहलाएगा ? कदाचित् नहीं!


  सर्वविदित है कि 'पतञ्जलि योग' को ही "अष्‍टांग योग" अथवा संक्षेप में 'योग' कहते हैं। "योग" आत्‍मा-परमात्‍मा के मिलन का नाम है, आत्‍मा-परमात्‍मा के साक्षात्‍कार करने की विधि का नाम है। जिन लागों को अष्‍टांग योग के आठों अंगों का अभ्‍यास करने का अनुभव है और समाध्‍यावस्‍था में पहँच चुके हैं अर्थात् किसी भी परिस्थिति में समाधि लगा सकते हैं - उनको "योगी" कहते हैं और एक अनुभवी 'योगी' के मार्गदर्शन से ही 'योग' सीखा जा सकता है।


शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य रखने के लिये 'रोग-निवारक व्‍यायाम' सीखना/सिखाना अच्‍छी बात है तथा 'आसन' इत्‍यादि करना उससे भी बेहतर है, इसमें दो राय नहीं हो साकती और स्‍वस्‍थ्‍य रहने के लिये आवश्‍यक भी है। जिसमें जन-साधारण का लाभ हो, संसार का उपकार हो - वह सब श्रेष्‍ठ कार्य हैं।


सामान्‍यतः आसन का अर्थ होता है – Position अर्थात् स्थिति, बैठने का स्‍थान या जिस वत्र (सूती दरी) पर बैठा जाए। जिस स्थिति में मनुष्‍य बैठ सके, वह 'आसन' और जिस स्थिति में कोई लम्‍बे काल तक सुखपूर्वक बैठ सके वह 'सुखासन' कहाता है। इस प्रकार योग के आसनों को "योगासन" कहते हैं तथा शारीरिक व्‍यायाम के आसनों को "हठासन" की सकते हैं।


यहाँ हम जन-साधारण से निवेदन करना चाहते हैं और वे अच्‍छी तरह समझ लें कि जिसे "योगासन" (सुखासन) कहते हैं वह "पतञ्जलि योग" का तीसरा अंग है और "प्राणायाम" चौथा अंग है। वास्‍तव में 'योगासन' और 'प्राणायाम' बिल्‍कुल पृथक वस्‍तुएँ हैं। पतञ्जलि योगानुसार "जिस आसन में सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान किया जाए – वह "आसन" या "सुखासन" कहाता है। सुखासन में सीधा बैठना होता है, रीढ़ की हड्डी सीधी हो - जैसे पद्मासन, वज्र-आसन, पालती मार कर सीधे सुखपूर्वक बैठना, अस्‍वस्‍थ्‍य होने पर टेक लगाकर बैठना ...इत्‍यादि।


हठयोग में  प्रायः आसनों तथा अनेक प्राणायामों के माध्‍यम से अनेक शारीरिक रोगों का निदान हो सकता है। शरीर लचीला और सुन्‍दर बनता है। 'हठ-आसन' अनेक प्रकार के होते हैं जैसे पद्मासन, भुजञ्गासन, हलासन, ताड़ासन, शीर्षासन, गोमुखासन, भद्रासन, हस्तिनिषदनासन, मयूरासन इत्‍यादि –ये सब रोगों की निवृति के लिये लाभकारी हैं परन्‍तु इन आसनों में हम सुखपूर्वक बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान नहीं कर सकते क्‍योंकि ईश्‍वर के ध्‍यान या उपासना के समय 'सुखासन' का होना आवश्‍यक होता है, जिसमें लम्‍बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सके। अतः हठयोग का अभ्‍यास शारीर को निरोग रखने के लिये लाभकारी हो सकता है बशर्ते वह किसी सुशिक्षित अभ्‍यासी गुरु की देख-रेख में किया जाए अन्‍यथा लाभ के स्‍थान पर हानि की सम्‍भावनाएँ अधिक होती हैं और लेने के देने भी पड़ सकते हैं।


'प्राणायाम' के विषय में भी अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं जिनको हम 'प्राणायाम' न कह कर 'श्‍वास-क्रिया' कहें तो अधिक उपयुक्‍त होगा। 


"पतञ्जलि योग" हो या हठयोग की क्रियाएँ एक अभ्‍यासी गुरु (शिक्षक) के मार्गदर्शन/देख-रेख में ही करने उचित हैं। ध्‍यान रहे कि सब हठ-योगासन (शारीरिक क्रियाएँ या व्‍यायाम) सब के लिये सदा लाभकारी नहीं होते, अतः जो हठ-आसन या क्रिया, जिसे अनुकूल अथवा लाभकारी लगे, उसे करने में कोई आपत्ति या हानि नहीं है। यदि किसी आसन के करने के दौरान किसी को शरीर के किसी भी अंग में अत्‍यन्‍त पीड़ा/दर्द का अनुभव हो तो उसे तुरन्‍त रोक देना चाहिये और अपने योग प्रशिक्षक आचार्य से सम्‍पर्क करना चाहिये।


              प्राणायाम अर्थात् प्राणों का आयाम। आयाम कहते हैं – लम्‍बा करना अतः प्रणायाम का अर्थ हुआ – प्राणों को लम्‍बा करना अर्थात् प्राणों को यथाशक्ति अन्‍दर/बाहर रोके रखना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्थिति में आ जाना। पतञ्जलि योगदर्शन में चार प्रकार के प्राणायामों का उल्‍लेख है – 


1. बाह्य प्राणायाम


मूलेन्द्रिय को ऊपर खीचते हुए अपने श्‍वासों को यथाशक्ति बाहर निकालकर रोकना और जब घबराहट हो तो धीरे-धीरे अन्‍दर भर लेना


2. आभ्‍यान्‍तर प्राणायाम


श्‍वास को पूरी तरह से सीने में भरकर यथाशक्ति रोकना और घबराहट होने पर धीरे-धीरे बाहर छोड़ना


3. स्‍तम्‍भक प्राणायाम


जहाँ हैं, वहीं साँस को रोक देना अर्थात् जितनी साँस अन्‍दर/बाहर है उसी स्तिथि में रहना और जब न रह सकें तो सामान्‍य स्तिथि में आ जाना


4. बरह्याभ्‍यन्‍तराक्षेपी प्राणायाम


पूरी शक्ति से साँसों को बाहर निकाल कर रोकना और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा जो साँस अन्‍दर बची है उसे भी बाहर छोड़ना और रुकना, और घबराहट होने पर धीरे-धीरे श्‍वासों को अन्‍दर भरना। इसी प्रकार साँसों को यथा शक्ति अन्‍दर भर लेना, और जब घबराहट हो तो फिर दोबारा श्‍वासों को भीतर लेना और रोके रहना और अन्‍त में श्‍वासों को धीरे-धीरे बाहर निकालकर सामान्‍य स्थिति में आ जाना।


   उपरोक्‍त चार प्रकार के प्राणायाम से मानसिक शक्ति बढ़ती है, मन को वश में किया जा सकता है तथा मन की शान्ति प्राप्‍त होती है। मन पर नियन्‍त्रण होने से उपायसक को ध्‍यान और उपासना करने में लाभ मिलता है। और दूसरी ओर हठयोग में 'प्राणायाम' के भी अनेक प्रकार बताये जाते हैं जिनसे शारीरिक और मानसिक रोगों में लाभ पहँचता है।


  
#हठयोग व #पतंजलि योग में अंतर


आज योग के जिन आसन , प्राणायाम आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम से हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत १५ वीं शताब्दी में घेरण्ड मुनि द्वारा रचित घेरण्ड संहिता , गुरु गोरखनाथ जी द्वारा शिव संहिता तथा स्वामी स्वात्माराम जी द्वारा हठयोग प्रदीपिका है।


इसमें चार अध्याय हैं


प्रथमोपदेशः - इसमें आसनों का वर्णन है।


द्वितीयोपदेशः - इसमें प्राणायाम का वर्णन है


तृतीयोपदेशः - इसमें योग की मुद्राओं का वर्णन है 


चतुर्थोपदेशः - इसमें समाधि का वर्णन है।


          इन अध्यायों में आसन, प्राणायाम के अतिरिक्त  षट- कर्म शुद्धि  क्रियाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन है। जिनमें नेति, धौति , बस्ती, नौलि, कपालभाति और त्राटक ये छ: क्रियाएं भी आती हैं । इसके साथ साथ मुद्राओं, बन्ध, चक्र / कुण्डलिनी जागरण क्रिया का भी मार्गदर्शन है।


   वास्तविक रूप में आजकल हमलोग जो भी योग आसन करते है अथवा जो भी प्राणायाम की क्रियाएं करते हैं , वे सब इन्ही हठयोग आदि ग्रंथो से ली गई हैं, न कि पतञ्जलि के योगदर्शन से। क्योंकि योगदर्शन में किसी भी आसन व प्राणायाम का विस्तृत वर्णन नहीं है , मात्र संकेत के रूप में सूक्त दिए गए हैं। 


#उदाहरणार्थ


आसन के बारे मे पतञ्जलि जी ने लिखा -" स्थिर सुखम असानम "। बस और कुछ नहीं। इसी प्रकार प्राणायाम के बारे मे एक एक पंक्तियां ही लिखी गयी हैं, कैसे करने हैं, उनकी विधि क्या है , हिदायतें क्या है, लाभ हानियां क्या है, कुछ नहीं बताया गया। इन समस्त आसनों व प्राणायाम की गहन चर्चा हठयोग- प्रदीपिका ग्रंथ में ही है। 


किन्तु जब भी कभी योग क्रियाओं की चर्चा होती है तो लोग उसे अक्सर पतंजलि के योग से जोड़ते हैं,वास्तव में वे हठयोग से संबंधित हैं। पतंजलि योग एक राज योग है, ध्यान योग है , शारीरिक योग नहीं.
  अब एक मुख्य प्रश्न खड़ा होता है -  यदि ऐसा है तो फिर लोग हठयोग के नाम से घबराते क्यों हैं ? इसका कारण यह है कि इस हठयोग में कई ऐसी क्रियाएं भी हैं जो बहुत कठिन हैं , दुष्कर हैं। जिसे आम आदमी नहीं कर पाता है । वो किसी कुशल योग गुरु के सानिध्य में करनी चाहिए और उस आसन में सिद्धहस्त होने के लिए  बहुत अभ्यास की आवश्यकता होती है। कुछ कठिन आसनों की वजह से हम योग (हठयोग) ही न करें या उसको पूर्ण रूप से त्याग दें , यह कदापि उचित नहीं ।


#स्वामी_दयानंद जी के हठयोग पर विचार


इन कठिन आसनों को देखते हुए स्वामी दयानंद जी ने हठयोग को त्याज्य बताया था। किंतु उनका यह भाव न था कि समस्त हठयोग को ही छोड़ देवें। बल्कि सिर्फ उन कठिन आसनों को ही छोड़ना उनका उद्देश्य था। क्योंकि वे समझ रहे थे कि आम आदमी बिना विवेक के इन कठिन आसनों को करेगा तो लाभ की जगह हानि न कर बैठेगा स्वामी जी की जीवनी पढ़ें तो पता चलता है कि उन्होंने अनेक योगी ,साधु , तपस्वियों से हठयोग सीखा और अनुभव प्राप्त किया । 


अपने लंबे अनुभव के आधार पर ही उन्होंने आम आदमी के लिए हठयोग को मना करके मात्र अष्टांग योग जैसे सरल योग को अपनाने के लिए सोचा होगा।


स्वामी जी ने स्वयं अपने जीवन में इस हठयोग का बहुत अधिक अभ्यास किया था । उनका शरीर, उनका बल हठयोग से प्राप्त की गई शक्ति व ऊर्जा की ओर स्वयं संकेत करता है। 


बाल ब्रह्मचर्य एवम हठयोग की शक्ति से ही वो खड्डे में फंसे बैलों को बाहर निकाल सके, दो सांडो को लड़ते हुए छुड़ा सके , दो गुंडों को अकेले पानी में डूबा कर रख सके, तलवार के दो टुकड़े कर सके, काफी दिनों तक भूखे प्यासे रह सके, दुर्जनो की लाठियों पत्थरों को सह सके।


भयंकर ठंडी में भी वे कोपीनधारी ही रहे ,ये सब हठयोग का ही तो परिणाम था । प्राणायाम की विशेष क्रिया द्वारा वे भीषण सर्दी में भी अपने शरीर से पसीना निकाल लेते थे।


          हठयोग की एक खास क्रिया होती है जिसे 'वमन धौति' कहते हैं , जिसमें पेट मे पड़े दूषित पदार्थो को उल्टी की विशेष प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाला जाता है। स्वामी जी को उनके जीवन मे 16 बार विष दिया गया। किन्तु जब भी उनको धोखे से भोजन में विष दिया जाता था , वे वमन धौति की क्रिया द्वारा उसको उल्टी करके बाहर निकाल देते थे।नौलि क्रिया द्वारा नाभि तक जल में खड़े होकर गुदा द्वार से १,२ लीटर पानी खींचकर बाहर आकर झाडियों के निकाल देते थे। इस प्रकार वे बार बार बच जाते थे।यह हठयोग का ही वरदान था ।


हठयोग में एक 'कुण्डली - जागरण' की विधा भी होती है , जिसमे साधक आसन , प्राणायाम, मूलाकर्षण आदि क्रियाओं से अपने शक्ति केंद्र को जागृत करता है। इसके जागरण से व्यक्ति में असीम शक्ति का उदय होता है और मूलाधार से उठी यह शक्ति का विस्फोट मनुष्य को अत्यंत शरीरिक व मानसिक ऊर्जा से भर देता है।जिससे वह अनेक विस्मयकारी सामाजिक कार्य करने में सक्ष्म हो जाता है और आध्यात्मिक विकास- पथ पर आरोहण करने लगता है। किंतु कभी कभी इससे विपरीत भी होता है जब कमज़ोर व्यक्ति इसे संभाल नहीं पाते हैं और जो शक्ति का ऊर्ध्वगमन होना चाहिए था वह अधोमुखी हो जाता है , नाभि केंद्र से सहस्रार चक्र की ओर बहने वाली धारा पुनः मूल की ओर आने लगती है और वह  व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों में कुछ इस तरह फंस जाता है कि शक्ति का दुरुपयोग कर बैठता है । 


       वह  इस प्रकार यह शालीन योग अश्लीलता की तरफ दौड़ने लगता है । इन्ही बातों को ध्यान में रख कर सामान्य जनों को स्वामी जी ने हठयोग अपनाने के लिए मना किया।


सो आइये,हलके फुलके आसन करने में न हिचकिचाएं आज हम इस आधुनिक युग में ज़्यादा शारीरिक श्रम नहीं कर पाते जो कि पहले दिनचर्या में ही शामिल होते थे अतः कुछ आसन कर हम अपनी मांसपेशीयो से काम लेकर उनको सुडौल और सही रख सकते है वरना वो शिथिल होने से कई रोगों का कारण बन सकती हैं।


     वैसे भी जन-साधारण की 'योग' में अथाह आस्‍था है परन्‍तु उन्‍हें क्‍या पता कि उनकी आस्‍था से कुछ लोग अपना उल्‍लू सीधा करने में लगे हैं। आज समाज में 'योग' के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ उत्‍पन्‍न हो गई हैं जिनका निराकरण करना अत्‍यन्‍तावश्‍यक है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि आने वाले कुछ वर्षों के पश्‍चात् लोग "विशुद्ध योग" से सदा के लिये वंचित हो जाएँ और केवल कुछ आसनों को ही 'योग' समझने लगें तथा मात्र आसन और प्राणायाम को ही योग समझने की ग़लती करें।


सत्‍य की यही परिभाषा है के जो वस्‍तु जैसी है उसे वैसा ही कहना चाहिये परन्‍तु मुझे मजबूरन यह बात यहाँ लिखनी पड़ती है कि हमारे अनेक भारतीयों के मस्तिष्‍क में एक बात की भ्रान्ति घर किये है (इसे हम अपनी कमज़ोरी समझें या आत्‍म विश्‍वास की कमी!) कि विदेशी वस्‍तुएँ बढि़या होती हैं क्‍योंकि उस पर विदेशी लेबल लगा है। देश की 400 वर्षों की पराधीनता से हमें स्‍वतन्‍त्रता तो मिली है परन्‍तु वास्‍तविकता यही है कि हम दिलो-दिमाग़ से आज भी विदेशी वस्‍तुओं के ग़ुलाम हैं। हमारे प्राचीन योग को सीखकर विदेशियों ने इसे "योगा" कहना प्रारम्‍भ कर दिया है। योगा कोई शब्‍द नहीं है। YOG (योग) कहने में हमें लज्‍जा आती है और YOGA (योगा) कहने से हमें गर्व होता है। विदेश में रहने वाले लोग जिनकी मातृभाषा अंग्रेज़ी है उन्‍हें और राम या योग इत्‍यादि को लिखने के लिये रामा या योगा लिखना पड़ता है परन्‍तु क्‍या हमें राम या योग बालना नहीं आता या क्‍या हम अपने घरों में आपस में भी अंग्रज़ी में बात करते हैं? हमारी नकल हमारे बचचे भी करते हैं वे भी राम को रामा और योग को योगा कहते हैं। अच्‍छी बात की नकल अवश्‍य करनी चाहिये परन्‍तु अपनी शुद्ध भाषा को अशुद्ध करके बोलना – यह कहाँ की समझदारी है? यह तो अपनी संस्‍कृति और सभ्‍यता का अपमान करना है, इसे मूर्खता ही कह सकते हैं। है ना?


सो हम हठयोग पर पुर्नविचार करें और इसके नाम से फैली हुई भ्रांतियों को दूर करें तथा आज के दौर में जो योग है जो योग्य है उसे विवेकपूर्ण ढंग से अपनाकर लाभ प्राप्त करे*ओ३म् सर्वज्ञ
वेद वरदान आर्य




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