पं. लेखराम आर्य मुसाफिर
जन्म अप्रैल 1858 चैत्र 8 सावत 1915 बलिदान 6 मार्च 1897 लाहौर पास्किस्तान
साभार आर्य मित्र सफ्ताहिक पत्रिका
आर्य समाज के अमूल्य धरोहर पं. लेखराम आर्य मुसाफिर
आर्य समाज के अमन Aala. आर्य सामज का अस्तित्व वेद के अं अस्तित्व पर विद्यमान हैं। वेद के बाद ऋषि ए मुनियों के ग्रन्थ व उनकी ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित मानव जीवन के सभी पक्षों पर मार्गदर्शन करने वाली सत्य मान्यताओं पर है। यदि किसी व को शास्त्र वा शास्त्र ज्ञान उपलब्ध न हो तो उसे तर्क व युक्ति का सहारा लेकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिये और विधर्मियों से वैदिक धर्म रक्षा करनी चाहिए। यह विचार ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना के समय आर्यसमाज के विद्वान व सभी अनुयायी स्थापना काल से करते चले आ रहे हैं। ऋषि दयानन्द जी के जीवन काल में स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं० लेखराम, पं० गुरूदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय जी आदि महापुरूष ऋषि वा उनकी विचारधारा के सम्पर्क में आये और उन्होंने अपने विवेक से आर्यसमाज की विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु पूर्ण समर्पित भाव से काम कियाइसके बाद अनेक ज्ञात व अज्ञात विद्वान् पुरूष व स्त्रियां इससे जुड़ते रहे जिन्होंने न केवल आर्यसमाज की विचारधारा को अपनाया अपितु इसके आचरण व व्यवहार करने में अनेक प्रकार के कष्ट भी सहन कियेजिन लोगों ने आर्यसमाज को सर्वात्मना अपनाया और इसका प्रचार-प्रसार किया उन्हें हम आर्यसमाज की धरोहर नाम से सम्बोधित कर सकते हैं। आज यदि आर्यसमाज का अस्तित्व है और वह अपने स्वर्णिम इतिहास को समेटे हुए आगे बढ़ रहा है तो इसमें आर्यसमाज की धरोहर वा बलिदानी प्रकृति के ऋषि भक्त विद्वानों को ही मुख्य योगदान है।
।। ।।।।।ण पण पशहर वा बलिदानी प्रकृति के ऋषि भक्त विद्वानों को ही मुख्य योगदान है। हम आर्यसमाज की धरोहर पं० लेखराम हम आर्यसमाज की धरोहर पं० लेखराम के विषय में कुछ जानकारी दे रहे हैंपं० लेखराम जी का जीवन आदर्श जीवन है जो सभी आर्यसामज के विद्वानों, नेताओं एवं ऋषि भक्तों के लिए प्रेरणादायक हैं। उनके जीवन में आरम्भ से अन्त किसी प्रकार का कोई दाग व विरूद्ध आचरण नहीं है। उन्होंने अपने जीवन का एक-एक पल वैदिक धर्म के प्रचार व उन्नति के लिए जिया। प्राणों की उन्होंने चिन्ता की। कहीं भी धर्मान्तरण की सूचना मिलती तो वह तत्काल वहां पहुंचकर लोगों को समझाते थे और जो लोग ईसाई व इस्लाम धर्म किन्हीं भी कारणों से स्वीकार कर रहे होते उन्हें इन मतों की यथार्थ कमियां बताकर वैदिक धर्म की श्रेष्ठताओं का प्रतिपादन करते थे। यह भी वेदमत अनुयायियों का सौभाग्य है कि पंडित लेखराम जी के लिखे कुछ ग्रन्थ सुलभ हैंआर्य विद्वान पं० राजेन्द्र जिज्ञासु जी पं० लेखराम जी के ग्रन्थों के संकलन 'कुलियात आर्य मुसाफिर' का सम्पादन किया है। स्वामी ओमानन्द जी ने गुरूकुल झज्जर से तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने इस वृहद ग्रन्थ का प्रकाशन किया हैपं० लेखराम जी ने अजमेर में ऋषि दयानन्द जी के दर्शन किये थे। और वहा दोनों व्यापक है। दोनों एक स्थान पर एक साथ कैरो रा राकती ? ऋषि दयानन्द ने इस प्रश्न को समझाने के लिए भूमि से एक पत्थर उठाया और पं. लेखराम जी को दिखाकर कहा कि देखो इसमें अग्नि व परमात्मा व्यापक हैं या नहीं? इसका उत्तर हा में था। उन्होंने कहा कि बात वास्तव में यह है कि जा वस्तु जिससे सूक्ष्म होती है वह उसी वस्तु में व्यापक हो सकती है। ऋषि का यह समाधान सुनकर पं० लेखराम जी को बहत आनन्द हुआ। पं० लेखराम जी ने ऋषि से एक प्रश्न यह पूछ कि जीव और ब्रह्म की भिन्नता अथात् पृथक-पृथक अस्तित्व का कोई प्रमाण बता' बतायें। इसका उत्तर देते हए ऋषि ने उन्हें कहा कि यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय जीव और ब्रह्म का भेद बताता है। पं० लेखराम जी ने ऋषि से पूछा कि अन्य मतों के लोगों को शुद्ध कर वैदिक धर्म सम्मिलित करना चाहिये वा नहीं? इसका शुद्ध करना । चाहिये। एक प्रश्न पंडित जी का यह भी था कि बिजली वस्तु है और यह कैसे उत्पन्न होती है? . ऋषि दयानन्द ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि विद्युत सभी स्थानों में में है और रगड़ अर्थात् घर्षण से उत्पन्न होती है। बादलों की विद्युत् भी बादल और वायु के घर्षण से उत्पन्न होती है। इन प्रश्नों के अतिरिक्त भी पं० लेखराम जी ने कुछ और प्रश्न किये थे परन्तु वह प्रश्न व उनके उत्तर उन्हें स्मरण नहीं रहेऋषि दयानन्द जी ने पं. लेखराम जी को यह सलाह भी दी थी कि २५ वर्ष की आयु से पूर्व विवाह मत करना। लेखराम जी ने इस आज्ञा का पालन किया और ३५ वर्ष की आयु में २६ वर्षीय लक्ष्मी देवी जी से विवाह किया थालक्ष्मी देवी जी अनपढ़ महिला थी। पं० लेखराम जी ने उन्हें स्वयं पढ़ाकर शिक्षित भी किया। __पंडित लेखराम जी पलिस विभाग में पंडित लेखराम जी पुलिस विभाग में नौकरी करते थे। नौकरी करने से वेद प्रचार में बाधायें आती थीं। अतः आपने २४ दिसम्बर १८८४ को नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र देने के बाद वह नौकरी के सभी बन्धनों से मुक्त हो गये। अधिकारियों की गीदड़ भभकी पर भी अब पूर्ण विराम लग गया था जो सेवाकाल में उन्हें मिला करती थी। अब आप वैदिक धर्म प्रचार, धमान्तरितों की शुद्धि व धर्म रक्षा के कार्यों के लिए जब जहां जाना चाहें, आ जा सकते थे।
पं० लेखराम जी ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उन्होंने देश भर में घूम कर ऋषि दयानन्द जी की जीवन विषयक सामग्री संग्रहीत की। कई वर्षों तक वह इस कार्य के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर आते जाते रहे। इस कार्य को करने में उन्हें कितने कष्ट सहन करने पड़े, इसका हम अनुमान भी नहीं कर सकते। इस कार्य में उन्हें सफलता मिली और प्रभूत सामग्री एकत्र हो गई। इस सामग्री के आधार पर उन्होंने ऋषि दयानन्द का प्रथम विशालकाय जीवन चरित्र लिखा! डॉ० भवानी लाल भारतीय द्वारा सम्पादित और आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के संस्थापक लाल दीपचन्द आर्य जी द्वारा प्रकाशित यह जीवन चारत्र भी ऋषि साहित्य आयसमाज का महाधन है। बाद के सभी जावनाकारों ने इसी जीवन चरित्र की सहायता 7 अपने जीवन चरित्र लिखे हैं। इस जीवन पारत्र का शैली भी अदभत है। पं. लेखराम जी स्थान-स्थान पर जाकर उन लोगों से मिलते थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द जी को साक्षात् देखा था और उनके विचारों वा व्याख्यानों को सुना था। कुछ ने उनकी संगति में भी समय व्यतीत कर किया था। लेखराम जी ने उन व्यक्तियों से मिलकर ऋषि दयानन्द विषयक उनकी स्मृतियों को लेखबद्ध कराया और उन्हें यथावत् अपने जीवन चरित में स्थान दियायह बृहद जीवन चरित पढ़ते हुए ही आरम्भ से अन्त तक पाठक का मन ऋषि दयानन्द और लेखराम जी के प्रति श्रद्धा से भरा रहता है। हमारा सौभाग्य है कि हमने इसे आद्योपान्त पढ़ा है और इसे पढ़कर हमें सन्तोष व सुख की अनुभूति हुई। इसी नीवन चरित्र को लिखते हुए ही एक विधर्मी ने नके पेट में छुरा भोंक कर उनकी हत्या कर दी गी। इस बलिदान के कारण पंडित जी को तसाक्षी धर्मवीर, पं० लेखराम के गौरवपूर्ण नाम ‘सम्बोधित किया जाता है। रक्तसाक्षा सो सन्ताष व सख को अनुभूति हुई। वन चरित्र को लिखते हुए ही एक विधर्मी ने ' पट में छुरा भोंक कर उनकी हत्या कर दी इस बलिदान के कारण पंडित जी को साक्षी धर्मवीर, पं० लेखराम के गौरवपूर्ण नाम स सम्बोधित किया जाता है। १६१५ की चैत्र अंग्रेजी वर्ष सन् १८ किया जाता है। पं० लेखराम जी का जन्म विक्रमी संवत् की चैत्र मास में ८ तारीख को हुआ थागा वर्ष सन् १८५६ का था। आपका जन्म स्थान रावलपिण्डी का सैयदपुर ग्राम है। आपने मदरसे से उर्दू व फारसी की शिक्षा प्राप्त की२१ दिसम्बर, सन् १८७५ को आप पुलिस में नौकरी पर लगे थे। आपने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर उनके अनुयायी बने थे। सन् १८८१ में आपने पेशावर में आर्यसमाज की स्थापना कीआपने पेशावर आर्यसमाज की ओर से 'धर्मोपदेशक' नामक मासिक पत्र का सम्पादन व प्रकाशन भी किया। यह सब करते हुए आप पेशावर में आर्यसमाज के सत्संगों में व्याख्यान भी देते थे। यह व्याख्यान आप ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के आधार पर किया करते थेएक बार आप अपने व्याख्यान में शराब का खण्डन कर रहे थे। वहां एक सेना का कप्तान उपस्थित थाउस पर आपके व्याख्यान का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने मदिरापान छोड़ दिया। पं. लेखराम जी व्याख्यान देने के साथ शास्त्रार्थ में भी रूचि रखते थे। पंडित जी की भावना थी कि अखिल विश्व में ओ३म का झण्डा फहराये और सारा संसार वैदिक धर्मी हो जाये। जिन दिनों पण्डित लेखराम जी पेशावर में थे, उन दिनों इनके पास ऋषि दयानन्द के दो पत्र आये। एक में पंडित जी को गोरक्षा आन्दोलन चलाने और गोहत्या बन्द करने वाले मेमोरेण्डम पर हस्ताक्षर कराने के बारे में था और दूसरा हिन्दी का प्रचार करने के विषय में थापण्डित जी ने ऋषि की आज्ञा के अनुरूप उत्साह से दोनों कार्यों को किया। आर्य हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए आपने पूरे मन, वचन कर्म से कार्य किया। आपने विधर्मियों से शास्त्रार्थ किये, धर्म पिपासुओं को व्याख्यान दिये और इसके साथ ही धर्मान्तरित किये जाने वाले हिन्दुओं को
आर्य सम उनके गांव व स्थानों पर जाकर समझाते थेईसाई व इस्लाम मत का प्रमाणों व युक्तिया स आप खण्डन भी करते थे। आपकी वैदिक धर्म भी करते थे। आपकी वैदिक धर्म के प्रति लगन व धर्म प्रचार की भावना सहित आपके प्रभावशाली व्याख्यान व तर्कों को सुनकर लोग वैदिक धर्म में बने रहने के लिए सहमत होते थे। पंडित जी की विदेश जाकर भी प्रचार करने की इच्छा थीआप अरब देश में जाकर भी प्रचार करना चाहते थे। आपने सन् १८६१ में स्वामी श्रद्धानन्द जी के सहयोग से कुम्भ के मेले में प्रचार करने सहित उसके लिए प्रभूत चन्दा भी संग्रहित किया था। वर्तमान में पाकिस्तान के सिन्ध क्षेत्र में जाकर भी आपने प्रचार किया था और वहां ईसाई व मुसलमान बन रहे हिन्दुओं को वैदिक धर्म की महत्ता समझाकर उन्हें वैदिक धर्म के पालन में स्थिर किया था। लोगों को वैदिक धर्म में स्थिर रखने में आपने अनेक अवसरों पर सफलतायें प्रापत की थीं। ऐसे भी अवसर आये कि पूरा गांव ईसाई मत स्वीकार कर रहा है परन्तु पंडित जी के वहां पहुंचने और लोगों को समझाने का प्रभाव यह हुआ कि वहां लोगों ने अपना इरादा बदल दिया। पंडित जी ने राजपूताने और काठियावाड़ में भी धर्म प्रचार किया था। पजाब में उन दिनों हिन्दुओं में मासाहार की बुराई विद्यमान थी। पंडित जी ने आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अनुरोध पर मांसाहार के विरोध में अनेक स्थानों पर जाकर व्याख्यान दिये और मांस भक्षण को वेद-विरुद्ध सिद्ध करने के साथ युक्तियों से इसे महापाप सिद्ध किया। एक बार आप स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ पाकिस्तान क क्वेटा स्थान पर आर्यसमाज के उत्सव में आय थे। तब यहां आपके अनेक विषयों पर १३ व्याख्या हुए थे। यहां से बिलोचिस्तान के अनेक स्थानों पर जाकर भी आपने प्रचार किया थाआपने एक स्थान सीबी पर दो मुसलमानों को भी वैदिक धर्म की श्रेष्ठता समझाकर शुद्ध किया और उन्हें वैदिक धर्मी बनाया। आपने भारत को आर्य बनाने की समस्या पर विचार कर इसके लिए सात उपाय सुझाये थे। सातवां उपाय था कि था कि दान की ठीक-ठीक व्यवस्था की जायेदान के धन को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट न किया जाये। आपने धर्म प्रचार कर सियालकोट में सैकड़ों सिखों को मुसलमान होने से भी बचाया था। पंडित लेखराम जी ने अपने नाम के लेख' शब्द के अनुरूप लेखन का कार्य भी किया। आपने छोटी-बड़ी लगभग ३३ पुस्तकें लिखी हैं। सन १८६७ में लाहौर में एक मुस्लिम युवक आपके निवास पर धर्मान्तरण की इच्छा से आया। वह रात दिन आपके साथ रहने लगा६ मार्च को पंडित जी ने ऋषि जीवन का लेखन कार्य किया। काम से थककर वह खड़े हुए अंगडाई ली। इस मुसलिम युवक ने कम्बल ओढ रखा था और उसमें खंजर छिपा रखा था। उसने हाथ से खंजर निकाला और पंडित जी के पेट में घोप कर उसे घूमा दिया। इससे पेट में कई घाव हो गये। आंते कट कर बाहर को आ रही थी। पंडित जी ने एक हाथ से अंतड़ियों को अन्दर किया और दूसरे हाथ से कातिल को पकड़ लिया। कुछ क्षण में कातिल ने अपने आप को छडा लिया और भाग निकला। घायलावस्था में आपको लाहौर के अस्पताल ले जाया गया। इस अवसर पर आपके परम मित्र महात्मा मुंशीराम जी जो बाद में स्वामी श्रद्धानन्द जी नाम से प्रसिद्ध हुए, आपके पास बैठे थे। आप घटना के बाद से निरन्तर ओ३म् विश्वानि देव और गायत्री मंत्र का पाठ कर रहे थे। रात्रि बजे अपने प्राण त्याग दिये। इस प्रकार ऋषि दयानन्द का एक परम भक्त वैदिक धर्म की वेदि पर बलिदान हो गयापंडित जी ने ऋषि दयानन्द के मार्ग पर चलकर वैदिक धर्म की प्रशंसनीय । पं० लेखराम जी के बलिदान ने सिद्ध दिया कि वैदिक धर्म के विरोधियों के पास समाज वस्तुतः दिग्विजयी विचारधारा है इसके अनुयायी अपना रक्त व प्राण देकर इसकी रक्षा करते हैं। हम आर्यसमाज की धरोहर पंडित लेखराम जी को अपने हृदय नमन करते हैं प्रभो हमें उनके मार्ग पर चलने शक्ति प्रदान करना।