महेंद्र गांधी, गांधीनगर

 



 


 


ईश्वर प्राणिधान
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   शीघ्र समाधि प्राप्ति के लिए साधक में अधिमात्र तीव्र संवेग होना जरूरी है । यह पहला उपाय है । दूसरा उपाय है ईश्वर प्राणिधान । ईश्वर समर्पण ।
 ईश्वर प्रणिधानात् वा
              - योग दर्शन १/२३


सूत्रार्थ - अतिशय प्रेम पूर्वक ईश्वर उपासना करना । शरीर आदि सभी पदार्थो का स्वामी ईश्वर है, हम केवल प्रयोक्ता है । ईश्वर की आज्ञानुसार उनका प्रयोग करना तथा समस्त कर्मो को ईश्वर को समर्पित कर देना । उन कर्मो का लौकिक फल नहीं चाहना ।


व्याख्या :
महर्षि दयानंद ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका ग्रन्थ में लिखते है -
ईश्वर में विशेषभक्ति होने से मन का समाधान होके मनुष्य समाधियोग को शीघ्र प्राप्त हो जाता है । 


व्यासभाष्य में कहा है प्राणिधान से अर्थात् भक्ति विशेष से अभिमुख किया हुआ ईश्वर उस योगी को संकल्पमात्र से ही अनुग्रहित करता है । उस ईश्वर की संकल्प द्वारा अनुग्रह = दी गई सहायता से योगीयों को अतिशीघ्र समाधि का फल मिलता है ।
ईश्वर प्राणिधान अर्थात् भक्तिविशेष । 
भक्ति का अर्थ करते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती यजू.२५/१३ में कहते है "भक्ति अर्थात् उसकी आज्ञापालन करने में तत्पर रहें ।" परमात्मा के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा को ही भक्ति कहा जाता है ।  मनुष्य केवल अपनी इच्छा अनुकूल ईश्वर का नाम स्मरण करे वह भक्ति नहीं है, किन्तु परमात्मा की आज्ञा का पालन यथावत करे, जो वेद में जीवो के कल्याण हेतु उपदेश - आदेश - निर्देश दिया गया है ।


  ईश्वर प्राणिधान के संपादन के लिए प्रथम शब्द प्रमाण और अनुमान प्रमाण से ईश्वर, जीव और प्रकृति, तीन नित्य पदार्थ का परिज्ञान कर लेना जरूरी है । मूल प्रकृति तथा उससे निर्मित पंच भूतात्मक़ सारे गोचर - अगोचर पदार्थ जड़ है, ज्ञानशून्य है । वे अपनेआप कुछ नहीं कर सकते । उनमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न गुण नहीं होते । उसको गति देने के लिए, उसके निर्माण, पालन, पोषण, वर्धन, विलीनीकरण हेतु कोई अन्य चेतन तत्व (निमित्त कारण) आवश्यक है । 
जीवात्मा अणु स्वरूप, चेतन, सीमित सामर्थ्य वाला तथा अल्पज्ञ पदार्थ है । संख्या में अनंत है, किन्तु परमात्मा की दृष्टि से सीमित (fix)  है । जीवात्मा के पास अल्प ज्ञान और अल्प शक्ति होने से वे सृष्टि का निर्माण आदि करना उनके वश में नहीं । परमात्मा का स्वरूप विभु है । वह किसीको सहायता लिए बिना अपने सहज अनंत बल, अनंत ज्ञान से सारे कार्य कर लेता है । वह असीम,  अनहद सामर्थ्यवान तथा करुणा के सागर है । वह एक महानतम चेतन सत्ता है, जो उत्तम उत्तम पदार्थो प्रस्तुत करके अहर्निश प्राणी जगत की सेवा कर रहा है । उसका पूरा सामर्थ्य, पूरी दिव्यता जीवात्माओं के कल्याण हेतु है । वह कामना रहित, अकर्मा, इंद्रयातित, सूक्ष्मतम, परम शुद्ध, आनंद रस से परिपूर्ण सर्वव्यापक तत्व है । प्रत्येक जीवात्मा के कर्मो, चेष्टाएं, विचारो आदि का अनंत काल से साक्षी है । सारा ब्रह्माण्ड उसी में जन्म लेता है, बढ़ता है, पोषित होता है और उसी में लोपित होता है । समस्त जड़ जगत, चेतन जगत और शब्द जगत का वही परमात्मा एक राजा, अधीक्षक, नियंत्रक अपने सामर्थ्य से सदा से बना हुआ है । उसका ही आश्रय लेना परम हितकारी है । उसी को समर्पित होने से जनमोजन्म की शृंखला को हम तोड़ सकते है । अविद्या के संस्कारो का भास्मिकरण उसी अग्नि स्वरूप परमात्मा से संभव है । वही हमारा परम गुरु है, मार्गदर्शक है । वहीं शाश्वत माता, पिता, बंधु है । उसके समान तथा उत्कृष्ट सखा कोई नहीं है । केवल परमात्मा ही समस्त ब्रह्माण्ड में सर्वोपरि, निरतिशय, अद्वितीय, विलक्षण रूप से सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है । 
इस प्रकार परमात्मा के दिव्य गुण - कर्म - स्वभाव जानकर, संसार से विरक्त होकर उसी की गवेषणा के लिए साधक लालायित हो जाता है । इस खोज में उसे परमात्मा सिवाय कुछ अच्छा नहीं लगता । उसी की प्रसन्नता के लिए सारे कर्म तथा व्यवहार करता है । उसी का विचार, चिंतन, मनन, मंथन करता है । अब वह उसी के लिए जीता है, खाता है, सोता है । सारी चेष्टाएं तथा कार्य उसी की प्राप्ति हेतु साधक करता है । स्वर्ग - नरक को भी ठोकर मारता है । केवल ईश्वर, ओर कुछ नहि ।  यही है ईश्वर भक्ति, ईश्वर प्राणिधान ।


   ईश्वर प्राणिधान की अवस्था में योगी चित्त की लौकिक वृत्तियों का निरोध करता है । अपनी सभी क्रियाओं को, अपने मन, प्राण और आत्मा को ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल करता हुआ परम गुरु परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाता है । वह न केवल अपनी क्रियाओं को ही ईश्वर के प्रति समर्पित करता है, बल्कि उनके लौकिक - पारलौकिक, दिव्य फल आदि की भी चाहना नहीं करता, क्योंकि वह समस्त दु:खो और उन दु:खो के कारण जन्म से ही छूटना चाहता है । वह जानता है कि मै सर्वदा, सर्वथा ईश्वर के मध्य में निवास कर रहा हूं और किसी भी काल में उससे पृथक नहीं हो सकता और इसी प्रकार से ईश्वर सर्वकाल में मुझ में व्यापक होता हुआ मेरी सभी क्रियाओं तथा भावनाओं को यथातथ्य तत् क्षण जानता है । इस प्रकार वह ईश्वर के प्रति सर्वकाल में सर्व रूपेण समर्पित रहता है ।
              ✍️महेंद्र गांधी, गांधीनगर














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