आत्मा की सत्ता व स्वरुप।
आत्मा की सत्ता व स्वरुप।
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एक व्यक्ति कहता है कि 'मैं हूं'। यहाँ 'मैं' का प्रयोग शरीर के लिए नहीं अपितु आत्मा के लिए होता है। यह उचित भी है क्योंकि शरीर के लिए कोई 'मैं' का प्रयोग नहीं करता, अपितु 'मेरा शरीर' का प्रयोग करता है।
सांख्य शास्त्र के रचयिता महर्षि कपिल ने अन्य प्रकार से इस बात को समझाया है―
प्रधानसृष्टि: परार्थं स्वतोऽप्यभोक्तृत्वात् उष्ट्रकुंकुमवहनवत्।
अर्थात्― प्रकृति से परिणत जगत् आत्मा के लिए ही है, प्रकृति के स्वयं भोक्ता न होने से, ऊँट के द्वारा केशर ढोए जाने के समान।
ऊँट केशर को अपने लिए नहीं, अपितु दूसरों के लिए ढोता है। इसी प्रकार प्रकृति से बना जगत् अपने लिए न होकर, आत्माओं के लिए होता है।
कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।―(सांख्य १/१०९)
'और मोक्ष के लिए प्रवृत्ति से।'
दु:ख की अत्यन्त निवृत्ति को मोक्ष कहते हैं। दु:खों से बचने के लिए जो प्रवृत्त होता है वह आत्मा कहलाता है।
स्थूल देह को यदि चेतन मान लिया जाए, तो आत्मा के मानने की क्या आवश्यकता है? इस आशंका का समाधान करते हुए आचार्य कपिल कहते हैं―
न सांसिद्धिकं चैतन्यं प्रत्येकादृष्टे:।
―(सां० ३/२०)
'प्रत्येक भूतकण में न देखे जाने से भौतिक तत्त्व में स्वभावत: चैतन्य नहीं है।'
पंचमहाभूतों के कणों में चेतना नहीं पाई जाती, अत: इन कणों के संघात पंचमहाभूतों में चेतना का तो प्रश्न ही नहीं उठता। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ तत्त्वों के मेल से चेतना उत्पन्न होती है, परन्तु आज तक कोई वैज्ञानिक भौतिक तत्त्वों से चेतना को उत्पन्न नहीं कर सका। इससे पता चलता है कि मनुष्य का चेतना पर कोई अधिकार नहीं है। यदि पंचमहाभूतों को चेतन माना जाए, तो इसके क्या परिणाम होंगे, महर्षि कपिल इस विषय में कहते हैं―
प्रपंचमरणाद्यभावश्च।―(३/२१)
'समस्त जड़ जगत् और मरणादि का अभाव होना चाहिए।'
यदि पंचमहाभूतों को चेतन मान लिया जाए, तो फिर समस्त जगत् में जड़ता नहीं रहनी चाहिए, अपितु समस्त जगत् चेतन होना चाहिए; परन्तु ऐसा अनुभव में नहीं आता। यदि पंचमहाभूतों को चेतन माना जाए, तो इनका परिणाम जो शरीर है, उसे तो कभी मरना नहीं चाहिए। परन्तु हम शरीर की मृत्यु देखते हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि चेतना पंचमहाभूतों का धर्म नहीं है, अपितु यह किसी अन्य तत्त्व का धर्म है जिसे आत्मा कहते हैं।
न्यायदर्शन में आचार्य गौतम ने आत्मा की नित्यता के विषय में निम्नलिखित युक्तियाँ उपस्थित की हैं―
पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाज्जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्ते:।
―(न्याय ३/१/१९)
पहले अभ्यास की हुई स्मृति के लगाव से उत्पन्न हुए को हर्ष, भय, शोक की प्राप्ति होने से आत्मा नित्य है।
जो बालक अभी जन्मा है उसे हर्ष, भय और शोक आदि से युक्त देखा जाता है। ये हर्ष, भय और शोक पूर्वजन्म में अभ्यास की हुई स्मृति के लगाव से ही उत्पन्न होते हैं।
प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात् ।
―(न्याय ३/१/२२)
मरकर पूर्वाभ्यासकृत दूध का अभिलाषी होने से आत्मा नित्य है।
बच्चा उत्पन्न होते ही माँ के स्तनों का पान करने लगता है। इस जन्म में तो अभी उसने पीने का अभ्यास किया ही नहीं। इससे पता चलता है कि अपने पूर्वजन्म में भोजन का अभ्यास किया है।
महर्षि गौतम ने न्याय-दर्शन में आत्मा की सिद्धि के विषय में निम्न युक्तियाँ दीं―
दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात्।
―(न्याय ३/१/१)
'दर्शन और स्पर्शन से एक ही अर्थ का ग्रहण होने से आत्मा शरीर से भिन्न है।'
जिस विषय को हम आँख से देखते हैं उसी को त्वचा से स्पर्श भी करते हैं। नींबू को देखकर रसना में पानी भर जाता है। यदि इन्द्रियाँ ही चेतन होतीं तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता था, क्योंकि एक के देखे हुए अर्थ का दूसरे को कभी स्मरण नहीं होता। फिर आँख के देखे हुए विषय का जिह्वा वा त्वचा से क्यों कर अनुभव किया जाता है? जब हम एक इन्द्रिय के अर्थ को दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण करते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि उस अर्थ के ग्रहण करने में इन्द्रियाँ स्वतन्त्र नहीं हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त ग्रहीता कोई और है जिसे आत्मा कहते हैं।यही बात महर्षि कणाद ने वैशेषिक शास्त्र में कही है―
इन्द्रियार्थप्रसिद्धिरिन्द्रियार्थेभ्योऽर्थान्तरस्य हेतु: ।
―(वै० ३,१,२)
इन्द्रियों के अर्थों की प्रसिद्धि इन्द्रियार्थों से अन्य अर्थ (आत्मा) की साधक है।
नाक से सूँघकर जिह्वा से चखना, आँख से देखकर त्वचा से छूना, और कान से सुनकर विषयों का ग्रहण करना आत्मा को सिद्ध करता है।
इस तर्क के खण्डन में यह तर्क दिया जाता है कि आँख और कान आदि इन्द्रियों के रुप और शब्द आदि विषय तो निश्चित हैं जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होते हैं, तो फिर आत्मा के मानने की क्या आवश्यकता है? इसके उत्तर में महर्षि गौतम ने कहा है कि इन्द्रियों के विषयों की निश्चितता ही आत्मा की सत्ता का प्रमाण देती है कि वह आत्मा ही इन्द्रियों से अपने-अपने विषयों को ग्रहण कराता है, उनसे भिन्न नहीं।
आचार्य गौतम ने आत्मा की सिद्धि में दूसरी युक्ति दी है―
शरीरदाहे पातकाभावात् ।―(न्याय ३/१/४)
'शरीर को जलाने में पाप नहीं होता।'
इससे सिद्ध होता है कि आत्मा शरीर से पृथक् है। इस पर शंका किए जाने पर कि आत्मा के नित्य होने के कारण सजीव शरीर को जलाने में कोई पाप नहीं, आचार्य गौतम ने कहा है कि नित्य आत्मा के शरीर में होने पर शरीर को जलाए जाने से पाप होता है, क्योंकि आत्मा के शरीर में होने पर शरीर को जलाने से शरीर को कष्ट अनुभव होता है।
आज का वेद मंत्र
ओ३म् शं नो धाता शमु धर्त्ता नो अस्तु श न उरूची भवतु स्वधाभि:।शं रोदसी बृहती शं नो अद्रि: शं नो देवानां सुहवानि सन्तु ।( ऋग्वेद ७|३५|३)
अर्थ :- सबका पोषण तथा धारण करने हारा परमात्मा हमारे लिए शान्ति दायक हो, पृथ्वी अमृतमय अन्नादि पदार्थों के साथ शान्ति देने वाली हो, विस्तृत अन्तरिक्ष एवं भूमि हमारे लिए शान्तिकारक हो, मेघ व पर्वत हमें शान्ति देने वाले हो और देवों-विद्वानों के सुन्दर स्तुति ज्ञान हमारे लिए शान्ति देने वाला हो
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