वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्य अन्धविश्वासों व दुष्कर्मों बचता है
ओ३म्
“वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्य अन्धविश्वासों व दुष्कर्मों बचता है”
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वेद अपौरुषेय रचना है। सृष्टि क आरम्भ में परमात्मा ने ही अपने अन्तर्यामीस्वरूप से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को उनकी आत्माओं में वेदों का ज्ञान कराया वा दिया था। प्राचीन काल से अद्यावधि-पर्यन्त सभी ऋषि वेदों की परीक्षा कर इस तथ्य को स्वीकार करते आये हैं कि वेद वस्तुतः ईश्वर से ही प्राप्त हुआ ज्ञान है। वेद सभी प्रकार की अविद्या व अन्धविश्वासों से सर्वथा रहित हैं। वेदों की इसी महत्ता के कारण से प्राचीन काल से भारत में वेदों के स्वाध्याय की परम्परा विद्यमान रही है। कहा जाता है कि जो वेदों का स्वाध्याय नहीं करता तथा जो वेदों की निन्दा आदि करता है, वह मनुष्य नास्तिक होता है। नास्तिक एक प्रकार से ईश्वर व वेद विषयक सत्य तथ्यों को न जानने व और उन्हें अपनी अविद्या आदि के कारण न मानने वाले लोग होते हैं। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में वेदों की महत्ता व वेद ज्ञान की सर्वोच्चता से परिचित कराने के लिये वेदों का प्रचार करने के साथ सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया था। इनका अध्ययन कर अध्येता को इस बात का निश्चय हो जाता है कि वेद वस्तुतः ईश्वर से प्राप्त ज्ञान है और वेद ज्ञान के अनुसार जीवन व्यतीत करने में ही जीवन की सफलता है।
सृष्टि के आदि राजा महाराज मनु ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ में कहा है कि समस्त वेद धर्म का मूल वा आदि स्रोत है। वेदों में जिन आचरणों व कर्तव्यों का विधान किया गया है, वही धर्म और जिनका निषेध किया गया है अथवा जो वेदविरुद्ध कार्य व व्यवहार होते हैं, वही अधर्म होता है। मनुष्य का धर्म एक ही होता है और वह वेद व वैदिक धर्म ही है जिसे आर्यधर्म भी कहते हैं। वेद से इतर मनुष्यों द्वारा चलाये गये मत, पन्थ व सम्प्रदाय हो सकते हैं, परन्तु धर्म वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के आचरण व पालन करने को कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय तक पूरी सृष्टि वा पृथिवी पर वैदिक धर्म ही संसार के सभी मनुष्यों का धर्म रहा है। महाभारत के बाद देश-देशान्तर में अज्ञान का अन्धकार छा जाने से मत-मतानतरों का प्रचलन व प्रचार हुआ है। किसी भी मत व सम्प्रदाय व उसकी मान्यताओं को धर्म की संज्ञा नहीं दी जा सकती। धर्म वह तभी हो सकते हैं जब कि वह पूर्णतः वेद की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुकूल हों। इसी कारण से वेदों के महान विद्वान ऋषि दयानन्द ने सभी मतों को विषसम्पृक्त अन्न की उपमा दी है। धर्म शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका सम्बन्ध किसी पदार्थ के गुण, कर्म व स्वभाव से होता है। जिस पदार्थ के जो मौलिक गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं, जो कभी बदलते व पदार्थ का साथ नहीं छोड़ते, वही उसका धर्म भी कहलाते हैं। इसी प्रकार से मनुष्य का धर्म भी सत्य बोलना तथा वेद की शिक्षाओं यथा ईश्वर का ध्यान व उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ करने सहित माता-पिता की सेवा व उनकी आज्ञा पालन, विद्वान अतिथियों की सेवा-शुश्रुषा तथा पालतू पशुओं तथा पक्षियों को भोजन व अन्न प्रदान करना ही होता हैं। सभी मनुष्यों को धर्म के दस लक्षणों का ज्ञान होना चाहिये। धर्म के यह दस लक्षण हैं 1- धृति वा धैर्य, 2- क्षमा, 3- दम, 4- अस्तेय वा चोरी का व्यवहार न करना, 5- शौच अर्थात् शारीरिक व विचारों की शुद्धि, 6- इन्द्रिय-निग्रह, 7- बुद्धि व विचारों की शुचिता, 8- विद्या, 9- सत्य व 10- क्रोध न करना, यह धर्म के दस लक्षण हैं। जिस मनुष्य के जीवन में धर्म के यह लक्षण साक्षात रूप में विद्यमान होते हैं, वही धार्मिक कहलाता है। वेद इन्हीं लक्षणों को जीवन में धारण करने की प्रेरणा करते हैं। जिन मनुष्यों के जीवन में धर्म के दस लक्षण पूर्णता वा अधिकांश मात्रा में नहीं है, वह धार्मिक कदापि नहीं कहला सकते। जो अपने व्यवहार में सब प्राणियों पर दया के स्थान पर हिंसा का आश्रय लेते व मांसाहार आदि करते हैं, वह वेदों व वैदिक साहित्य की दृष्टि में धार्मिक व सज्जन कोटि के मनुष्य नहीं होते।
वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से मनुष्य का अज्ञान व अविद्या दूर होती है। मनुष्य ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जान लेता है। प्रकृति व इसके विकारों सृष्टि व सृष्टि के पदार्थों को भी जान लेता है। भोग का परिणाम दुःख व रोग तथा त्यागपूर्वक पुरुषार्थ व तप से युक्त जीवन व्यतीत करना ही सुख व शरीर व आत्मा की उन्नति का आधार होता है। वेदों के स्वाध्याय के लिये ऋषि दयानन्द व उनके अनुचर आर्य विद्वानों के ग्रन्थ ही श्रेयस्कर व उपादेय हैं। अतीत में सायण व महीधर आदि लोगों ने वेदों के मिथ्या व भ्रष्ट अर्थ करके वेदों को अपमानित किया था। यह इन लोगों की अविद्या व सत्य वेदार्थ को न जानने के कारण हुआ। ऋषि दयानन्द ने इन भाष्यकारों की अविद्या व त्रुटियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है और वेद के सत्य अर्थों के समर्थन में अनेक प्रमाण भी दिये हैं। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ का अध्ययन करने से ऋषि दयानन्द की शास्त्रीय योग्यता तथा वेदों की महत्ता के दर्शन होते हैं। इस ग्रन्थ सहित ऋषि दयानन्द के ही सत्यार्थप्रकाश व वेदभाष्य का अध्ययन करने से ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित ईश्वर के जीवों को उनके कर्मों का फल प्रदान करने के सिद्धान्त का भी ज्ञान हो जाता है। इन ग्रन्थों का अध्ययन करने वालों की ईश्वर के अस्तित्व विषयक सभी शंकाओं का समाधान व भ्रान्ति-निवारण भी हो जाता है। स्वाध्याय करने वाला मनुष्य सच्चा आस्तिक एवं ईश्वर भक्त बन जाता है। इन ग्रन्थों वा सत्साहित्य के अध्ययन से मध्यकाल व बाद के समय में उत्पन्न व प्रचलित हुए सभी मत-मतान्तरों के अविद्यायुक्त व अन्धविश्वासों से युक्त होने का ज्ञान भी होता है। इससे पाठकों को यह लाभ होता है कि वह मत-मतान्तरों के फैलाये भ्रम जाल में फंसने से बच जाते हैं। स्वाध्याय का मुख्य लाभ अविद्या की निवृत्ति सहित आत्मा में सत्य ज्ञान का प्रकाश होना ही होता है जो कि केवल वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों के अध्ययन से ही प्राप्त होता है। स्वाध्याय का एक लाभ यह भी होता है कि इससे ईश्वर से मेल व संगति हो जाती है। जब हम ईश्वर विषय का अध्ययन करते हैं तो हमें ईश्वर संबंधी ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह ज्ञान हमारी अविद्या, अन्धविश्वासों, कुसंस्कारों, निन्दित आचरणों को सुधारता है। इससे हमारे आचरण का शुद्धिकरण हो जाता है जिससे ईश्वर की उपासना में प्रवृत्ति उत्पन्न होकर हम उपासना के क्षेत्र में भी सफलता को प्राप्त करते हैं। ऐसा ही सृष्टि की आदि से वर्तमान समय तक होता आ रहा है। हमारे जितने ऋषि व योगी आदि विद्वान बनते थे वह सब वेद व वैदिक साहित्य व ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा तदनुकूल तप वा पुरुषार्थ से ही बनते थे। स्वाध्याय से हम सत्य विचारों, सत्य ज्ञान, सदाचरण, ईश्वर उपासना, शरीर व आत्मा की उन्नति तथा मोक्षगामी बनते हैं। अतः स्वाध्याय व उपासना को मनुष्य को विशेष महत्व देना चाहिये।
स्वाध्याय करने से हम अन्धविश्वासों से बचते हैं। हमारी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में भी वेदों का स्वाध्याय लाभदायक है। स्वाध्याय अमृत प्राप्ति वा मोक्ष में सहायक है। स्वाध्याय से हमें ज्ञान तो मिलता ही है, हमारा यश भी बढ़ता है। यश ही मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति होती है। कहा गया है कि जिसका यश व कीर्ति होती है, वह मर कर भी जीवित रहता है। अपने यश व कीर्ति के कारण ही हम राम, कृष्ण, दयानन्द, श्रद्धानन्द, वीर सावरकर, रामप्रसाद बिस्मिल आदि को आज भी याद करते हैं। इसका कारण उनके सुकर्म ही थे। वह सुकर्म उन्होंने स्वाध्याय व सत्पुरुषों की संगति आदि से ही प्राप्त किये थे। अतः हमें भी स्वाध्याय सहित सत्पुरुषों की संगति वा सत्कर्मों को अपना मित्र बनाना चाहिये। इससे निश्चय ही हमारा कल्याण होगा और हम जीवन में आगे बढ़ेगे। इससे हमें जीवन में सच्चा सुख व सन्तोष भी प्राप्त होगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
https://youtu.be/q2JgNn3o1Ow