पूजा की सच्ची पात्रता चिन्मय होना
पूजा की सच्ची पात्रता चिन्मय होना
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‘मेरा’ यह दृश्य के साथ भेदात्मक सम्बन्ध है और ‘मैं ’यह दृश्य के साथ अभेदात्मक सम्बन्ध। इन दोनों का त्याग होते ही ज्ञाता अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। यही ज्ञाता की चिन्मय अवस्था है। ‘शिवो भूत्वा शिवं भजेत्’ अथवा ‘देवो भूत्वा देवान् यजेत्’ इत्यादि वाक्यों से इसी अर्थ की ओर संकेत किया गया है कि शिव या देव के साथ एकरूप हो कर अर्थात् चिन्मय हो कर ही शिव या देव का भजन-पूजन होना चाहिए, अन्यथा तुम्हारा यह भजन-पूजन सच्चा नहीं होगा।
• स्वस्थ दृष्टि
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साधक के लिए दृष्टि का स्वस्थ होना परम आवश्यक है। शास्त्र व गुरुपदेश दृष्टि को निखारते हैं। तर्क व युक्तिपूर्ण चिन्तन-मनन से भी दृष्टि में निखार आता है। संसार भर के विविध महापुरुष जिन्होंने सत्य को उपलब्ध किया है उसके अनुभवों को जानने-मानने-समझने से भी दृष्टि में स्पष्टता आती है। दृष्टि का सम्बन्ध आत्मा की ज्ञानशक्ति (बुद्धि) से है। बुद्धि के स्वस्थ, निर्मल व सूक्ष्म होने से दृष्टि का परिमार्जन व शोधन हो जाता है। दृष्टि को ‘मनुष्य की अन्दर की आँख’ इस नाम से भी पुकारते हैं। जिनके पास यह दृष्टि नहीं है वे बाहर की आँखें होते हुए भी अन्धे हैं।
• दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति
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आत्मा-परमात्मा, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, यज्ञ-योग, कर्म का प्रेरक हेतु, कर्म के संस्कार, वासनाएं, क्लेश, दुःख, दुःख-हेतु, सुख (सर्वथा दुःखमुक्ति), दुःखमुक्ति के उपाय, यम-नियम और उनके फल, प्रतिपक्ष भावना, प्रत्याहार, मैत्री-करुणा-मुदिता भावनाएँ, क्रियायोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, दुःख-जन्म- प्रवृत्ति-दोष-मिथ्याज्ञान, सकाम व निष्काम कर्म, वेद ज्ञान, सम्बन्ध, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, साधना (साध्य-साधन-विवेक), सिद्धि, शरीर और जीवात्मा की पृथक्-पृथक् मांगें, ये सब और ऐसे ही शतशः सहस्रशः तत्व हैं जो दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति को साफ-साफ दिखाई देते हैं।
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