स्वामी दयानंद सरस्वती जी तथा उनकी उत्तराधिकारिणी सभा
स्वामी दयानंद सरस्वती जी तथा उनकी उत्तराधिकारिणी सभा
आर्य समाज ने अपने अल्पकाल में ही हिंदी क्षेत्र में आधिकारिक स्थान बना लिया| इनके हिन्दी साहित्य पर पड़े प्रभाव से तो यूँ कहां जाने लगा कि बिना आर्य समाज के उल्लेख के हिंदी साहित्य तो अधूरा ही रह जाता है| इतने मात्र से ही ज्ञात होता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती आर्य समाज तथा आर्य समाजियों का हिंदी साहित्य को अतुलनीय योगदान है अन्यथा इनके उल्लेख के बिना हिंदी साहित्य को अधूरा रखने की चल रही चर्चा का जन्म ही न होता| इसकी सहायता के परीक्षण करने के लिए आओ स्वामी दयानंद सरस्वती, आर्य समाज तथा आर्य समाजियों के हिंदी साहित्य के लिए किये गए योगदान पर विचार करें|
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने गुजराती होते हुए भी देश को एक सूत्र में बांधने के लिए अपनी प्रचार की भाषा संस्कृत के स्थान पर जनसामान्य की भाषा हिंदी को अपनी लेखनी तथा प्रचार के लिए अपनाना एक क्रान्तिकारी कदम था| यह सत्य विशेष रूप में उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जबकि हिंदी साहित्य के आदि काल के उन्नायक स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने हिंदी के पूर्व साहित्यिक काल “रीतिकाल” काल” के सन्धि समय में ही हुए थे तथा श्रृन्गारिकता के दुष्परिणाम स्वरूप जो देश को पराधीनता का मुंह देखना पडा था, उससे जन मानस को बचाने के लिए न केवल जनभाषा हिंदी की खड़ी बोली में प्रचार आरम्भ किया अपितु साहित्य का मुख, स्वाधीनता, स्वावलंबन, देशभक्ति, पूर्व वैभव का स्मरण तथा अंधविश्वासों के खंडन की और मोड़ दिया| जिस कारण तत्कालीन युगाचार्य भारतेंदु हरिश्चंद्र, जो श्रृंगार काव्य द्वारा ही अपना लेखन कार्य आरम्भ कर चुके थे, को भी इस उलटी गंगा के बहाव में बहाने को बाध्य होना पडा| स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने तथा उनकी उत्तराधिकारिणी आर्य समाज ने हिंदी के प्रचार प्रसार में कोई कसर न उठा रखी| उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि “यदि आप हमारे साहित्य को पढ़ना चाहते हो तो हिंदी सीखो|” विदेशियों को भी ऐसी ही शिक्षा दी| आओ हम हिंदी के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती जी तथा उनके द्वारा सथापित आर्य समाज द्वारा हिंदी के लिए किये गए कार्यों का मूल्यांकन करें|
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना के साथ ही सर सैय्यद अहमद खां, फ्रांसिसी विद्वान् गार्सा-ड-तासी, संयुक्त प्रांत शिक्षा विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष मि. हैवल, राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द आदि लोग हिंदी को गंवारों की भाषा कहते हुए इसका विरोध कर रहे थे तथा इस में फारसी के शब्द मिलाने में लगे हुए थे| स्वामी जी ने उनके झूठ का भांडा चौराहे पर फोड़ कर जन सामान्य को हिंदी विरोधी होने से बचाते हुए उन्हें बताया कि हिंदी एक सशक्त भाषा है| इसे देश के प्रत्येक कोने में समझने वाले लोग हैं| इस में सब प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति हो सकती है| उनकी इस बात को राजनारायण बोस, भूदेव मुखर्जी तथा कालीचरण काव्य विशारद जैसे उस युग के नेताओं की प्रेरणा कह सकते हैं, जो हिंदी को स्वाधीनता का मार्ग मानते थे| अत: स्वामी जी द्वारा संस्थापित आर्य समाज इस प्रकार का प्रथाम आन्दोलन था जिसके द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सर्वप्रथम प्रयास हुआ| मिश्र बंधू विनोद तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने साहित्य ग्रन्थों में इस तथ्य को भलीभांति स्वीकार किया|
हिंदी अपनाने के पश्चात् स्वामी दयानंद सरस्वती जी केवल आठ वर्ष ही जीवित रहे, इन आठ वर्षों में वेद प्रचार के अतिरिक्त १५००० पृष्ठों के लेखन द्वारा साठ ग्रन्थ हमें धरोहर में दे गए, जिनमें उनकी आत्मकथा भी एक है, जिसे हिंदी समुदाय हिंदी गद्य साहित्य की प्रथम “प्रकाशित” आत्मकथा स्वीकार कर चुका है| स्वामी जी के ग्रंथों में सत्यार्थ प्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद कर लाखों ही नहीं करोड़ों की संख्या में छापा, छपवाया गया तथा अरबों की संख्या में इसे लोगों ने पढ़ा है और पढ़ रहे हैं| संभवतया सत्यार्थ प्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसका विश्व की इतनी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और हो रहा है, जितनी भाषाओं में कोई अन्य पुस्तक आज उपलब्ध नहीं है|
हिंदी साहित्य को स्वामी दयानंद जी ने एक नई दिशा दी| उन्होंने वीरोचित मार्ग अपनाते हुए जहाँ इसे शांत, वीर तथा उत्साह प्रदान करने का मार्ग अपनाया, वहां साहित्य में उपहासात्मक तथ उत्साहात्मक शैली की वृति का भी उदय किया| यथा अन्धविश्वासी ब्राह्मण को पॉप, अभिमानी को गर्वगंड सरीखे शब्द देकर हिंदी के लिए अनेक नए शब्दों का सृजन भी किया| पुनरपि, पुनश्च, नैरौग्य आदि तथा सर्वतंत्र, भुशुंडी, विडालाक्ष आदि संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया, जो स्वामी जी के संस्कृतज्ञ होने का तथा उनके गाम्भीर्य को दर्शाता है| स्वामी जी पुजारी शब्द को पूजा का अरि अर्थात् शत्रु मानते हुए इसे पुजारि लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे| आप संस्कृत के अनुसार हिंदी लिंगों का प्रयोग करते थे| तत्पश्चात् भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा प्रताप नारायण मिश्र ने भी स्वामी जी वाली शैली को ही अपनाया|
स्वामी जी अपनी भाषा को सशक्त दर्शाने के लिए मुहावरों तथा लोकोक्तियों का अत्यधिक प्रयोग करते थे| “आँख का अंधा गाँठ का पूरा” “उल्टा चोर कोतवाल को डांडे” आदि जैसे मुहावरे तथा लोकोक्तियों का स्वामी जी ने भरपूर प्रयोग किया है| स्वामी जी ने गद्य के गुणों तथा ओज, सरलता, प्रवाह तथा रोचकता को अपने साहित्य में विशेष स्थान दिया है| स्वदेश, स्वधर्म, स्वजाति, तथा देशाभिमान की भावना भरने के निमित्त ओज से युक्त शब्दों का स्वामी जी खूब प्रयोग करते थे| देवनागरी के महत्त्व को समझते हुए तो यहाँ तक कह जाते हैं कि विश्व भाषाओं की कोई भी लिपि इस की प्रतिस्पर्धी नहीं हो सकती, तब ही तो रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें “रणारूढ हिंदुत्व का निर्भीक नेता” कहा है| प्रतिमा पूजन पर लिखते हैं “ तोपों के मारे मंदिर और उनकी मूर्तियों को अंग्रेजों ने उड़ा दिया, तब मूर्ति कहाँ गई थी?”
स्वामी जी भाषा की सुबोधता तथा स्पष्टता के भी पक्षधर थे| यही कारण है कि उनकी भाषा में प्रवाह गुण प्रधान है| स्वामी जी में श्रोताओं व पाठकों को अपने प्रवाह गुण में बहाने की भी क्षमता थी| अत: स्वामी जी प्रवाह गुण का भी समिचीन प्रयोग करते थे| वह अपने उद्धरणों को शास्त्रोक्त प्रमाणों से पुष्ट भी करते थे| जिससे सुधि श्रोताओं का शास्त्रों से सम्बन्ध जुड़ता था| स्वामी जी की इस प्रवृति का हिंदी साहित्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ा| यहीं से हिंदी साहित्य में प्रमाण-ग्रंथों के आधार पर विवेचन की प्रथा चल पड़ी है|
स्वामी जी की शैली गाम्भीर्य तथा तर्कपूर्ण रही है| जिसका पाठकों पर गहरा प्रभाव पडा| हजारों व्यक्ति इन्हें पढ़कर अंधविश्वासों से मुक्त हुए और आज भी हो रहे हैं। स्वामी जी ने अपने लेखन तथा व्याख्यानों में कुरीतियों का खंडन करते हुए रोषपूर्ण शब्दों में क्षोभ प्रकट किया| सोमनाथ मंदिर प्रसंग में उनका यह आक्रोश अद्वितीय अवस्था में दिखाई देता है|
स्वामी जी तथा आर्य समाज की जिस शैली को उस काल के तथा अनुगामी साहित्यकारों ने बड़े जोश के साथ अपनाया, वह है उनकी व्यंगयात्मक शैली| यथा जन्म-पत्र के लिए शोक-पत्र, मन्त्र-शक्ति पर कहना “ अगर तुम्हारे मन्त्र में शक्ति है तो कुबेर क्यों नहीं बन जाते?” तपोवन को भिक्षुक-वन, पोप लीला के गपोडे आदि का प्रयोग करते हुए अपनी विनोद वृति का अच्छा प्रदर्शन किया है| स्वामी जी व्यंग्य में “हर की पौड़ी को हाड की पौड़ी” कहा करते थे|
स्वामी जी ने अपने गूढ़ विषयों को पाठकों के लिए सरल ढंग से रखने के लिए दृष्टांत शैली का अवलंबन किया| एतदर्थ शेखचिल्ली कथा, लाल बुझक्कड़ कथा आदि अनेक कहानियों का भी उन्होंने प्रयोग किया है|
स्वामी जी ने एक नई साहित्यिक शैली आरम्भ की, जिसे अनुगामी साहित्यकारों ने बड़ी ख़ुशी से अपनाया| वह शैली है “प्रश्न शैली|” इसमें स्वामी जी श्रोताओं के सामने स्वयं एक प्रश्न रखते थे और फिर स्वयं ही उस प्रश्न का उत्तर बड़े विस्तार से समझाया करते थे| स्वामी जी न केवल व्याख्यानों में ही अपितु शास्त्रार्थों में भी इस शैली का प्रयोग बड़ी विपुलाता से करते थे| स्वामी जी से पूर्व इस प्रश्नात्मक शैली का कभी किसी ने प्रयोग नहीं किया था|
स्वामी दयानंद जी के प्रभाव से हिन्दी गद्य को एक नई दिशा मिली तथा अब तक अछूते रहे विषय पर भी साहित्यिक कलमें उठने लगीं| कथा कहानियों में दार्शनिकता भी पैदा हुई| समाज सुधार, शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक विषयों की विवेचना के साथ ही साथ राजनीतिक प्रश्नों को भी हिन्दी साहित्य ने अपनाना आरम्भ कर दिया| सत्यार्थ प्रकाश में जो दार्शनिक, अध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों की विवेचना की गई है, उनके सम्बन्ध में आचार्य चतुरसेन जी कहते हैं, “ तुलसी कृत रामायण के पश्चात् सत्यार्थ प्रकाश ही इस युग का इतना लोकप्रिय ग्रन्थ हुआ है|” हजारों व्यक्तियों ने सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से हिंदी को सीखा है| बाबू श्याम सुन्दर दास के अनुसार “सत्यार्थ प्रकाश” और आर्य समाज के प्रभाव से पंजाब में हिंदी का वह असर हुआ, जिसकी कदापि आशा नहीं थी|” इससे हिन्दी में गंभीर विवेचना की पद्धति आई तथा रोचक एवं विनोदात्मक शैलियों का विकास हुआ|
रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार स्वामी जी के ब्रह्मचर्य, नैतिक शुद्धता और पवित्रता पर बल देना हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महान् उल्लेखनीय तथ्य है| रीतिकाल के ठीक बाद वाले काल में हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी जो उल्लेखनीय घटना घटी, वह स्वामी दयानंद जी का पवित्रतावादी प्रचार था|”
द्विवेदी युग पर स्वामी जी की विचारधारा का प्रभाव भारतेंदु युग से भी अधिक पडा| परिणाम स्वरूप नायिका भेद संम्बन्धी सहितय को ही समझा जाने लगा| यही कारण है कि कवि नाथूराम शंकर ने अपना श्रृगारिक काव्य ग्रन्थ “ कलित कलेवर“ को स्वयं अपने ही हाथों से नष्ट कर दिया| कहानी कार सुदर्शन जी को भी अपनी कहानियों का प्रवाह बदलना पडा| अवस्था यहाँ तक आ पहुंची कि इस युग के कवि श्रृंगार रस की कविता लिखने से डरने लगे थे| यही कारण है कि मैथिलिशरण गुप्त, नाथूराम शंकर तथा इस युग के अन्य कवियों के काव्यों में राष्ट्र-प्रेम, राष्ट्रोद्धार, समाज सुधार आदि की भावनाएं विपुलता से पाई जाती हैं|
स्वामी दयानंद सरस्वती जी तथा आर्य समाज ने सुधारवादी मार्ग अपनाते हुए बाल विवाह, विधवा विवाह, अनमेल विवाह, छुआछूत आदि अनेक कुप्रथाओं के विरोध में आवाज उठाई| इसको इन के अनुगामी साहित्यकारों ने भी अपनाया| मिश्र बंधुओं ने लिखा है कि “ अनेक भूलों और पाखण्डों में फंसे हुए लोगों को सीधा मार्ग दिखाकर जो अपने समय में महात्मा बुद्ध, गुरु नानक देव, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु तथा राममोहन राय ठौर ठौर कह गए, हम आर्य समाजी नहीं हैं तो भी हमारी समझ में ऐसा आता है कि हम लोगों का वास्तविक हित इस दृष्टि के प्रयत्नों द्वारा हुआ है और होना संभव है, उतना हित उपर्युक्त महात्माओं में से बहुतों ने नहीं कर पाया|” वैष्णव व भक्त मैथिलीशरण गुप्त की भारत भारती में स्वामी जी के प्राय: सब सुधारों का वर्णन है| दिनकर ने कहा है कि “ साकेत के राम तो स्वामी दयानंद जी के ‘कृण्वन्तो विश्वार्यम् ’ का नारा लगाते हैं|”
हिंदी को आरम्भ से ही राष्ट्र्भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास उन्होंने किया| आप विदेशियों को भी हिंदी में पत्र लिखने का अनुरोध करते थे| स्वामी जी ने मदाम ब्लैवेट्स्की को लिखा था कि जिस पत्र का हम से उत्तर चाहते हो, वह हिंदी में लिखा करें| कर्नल अल्काट को भी स्वामी जी ने हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया था| श्याम जी कृष्ण वर्मा को भी लिखा था कि “ अब भी वेदपाठी के लिफ़ाफ़े के ऊपर देवनागरी नहीं लिखा गया|”
आप ने हिंदी की एक नई शैली का परिष्कार भी किया| पूर्व में दो शैलियाँ प्रचलित थीं| (!) राजा लक्षमण सिंह की शैली,जिसमें तत्सम शब्दों पर बल था| (२) राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की शैली, जिसमें उर्दू शब्दों पर बल था| स्वामी जी ने भारत की जनता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अपनी भाषा में स्पष्टता, ओज, विशदता तथा पाठकों को प्रभावित करने के गुणों का खूब प्रदर्शन किया| कुछ लोग कहते हैं कि विरोधियों को चुप कराने हेतू आप लक्कड़ तोड़ भाषा का प्रयोग करते थे किन्तु तात्कालिक सामाजिक बुराइयों के नाश के लिए स्वामी जी ने ऐसी कठोर भाषा का प्रयोग करने के साथ ही साथ साधारण क्षणों में सरल, सरस ,सुबोध तथा प्रांजल भाषा का प्रयोग किया| तत्सम और तद्भव दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हुए अनेक प्राचीन शब्दों को पुन: हिंदी को लौटाया| स्वामी जी ने हिंदी को केवल बौझिल तथा विद्वदगण की भाषा नहीं बनाने दिया| स्वामी जी की भाषा में न तो”गवाह” शब्द निर्वासित हुआ और न ही “कलक्टर” शब्द को धक्का लगा|
डॉ. लक्ष्मी सागर वार्षणेय के अनुसार “ आर्य समाजियों की भाषा से हिंदी भाषा में एक नई शैली का प्रतिपादन हुआ, इससे भाषा में गहन से गहन विषय पर भी वाद-विवाद करने की शक्ति आ गई| आर्य समाज के कारण व्याख्यानों की धूम मची, इससे हिंदी भाषा का समस्त उत्तर भारत में प्रचार हुआ| इस प्रकार हिंदी गद्य शैली का विकास हुआ, यह निर्विवाद है|”
संस्कृत के वैदिक तथा शास्त्रीय साहित्य को भी अनुवाद द्वारा हिंदी में सुलभ किया गया| यहाँ तक कि चार वेद का भी भाष्य कर हिंदी में उपलब्ध किये गए|
आर्य समाज से सम्बंधित साहित्यकारों का विवरण
आर्य कहानीकार
पंडित गौरी दत्त, मुंशी प्रेमचंद, सुदर्शन, धनीराम, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र, निर्गुण, सूर्यदेव परिव्राजक, बलराज साहनी, भीष्म साहनी, यशपाल, श्रीमती स्त्यावती मलिक, श्रीमती चन्द्रकिरण सोमरिक्षा, डा. अशोक आर्य आदि|
आर्य समाज के निबंध लेखक
काली चरण, पंडित मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या, पंडित रुद्रदत्त शर्मा, डा.हरिशंकर शर्मा, वैदिक, कृष्ण प्रसाद गौड़ बेढब, डा.वासुदेव शरण अग्रवाल, डा. नागेन्द्र, डा. सत्येन्द्र, डा. विजयेन्द्र स्नातक, डा.मुंशीराम शर्मा सोम, डा. धर्मवीर भारती, श्री क्षेमचंद्र सुमन आदि|
आर्य समाजी गद्यकार
आचार्य चतुरसेन, आचार्य अभयदेव विद्यालंकार, देवदत्त विद्यार्थी आदि|
आर्य समाज के सैद्धांतिक समीक्षक
पंडित शालिग्रमा शास्त्री, पंडित उदयवीर शास्त्री, डा. हरिदत्त शास्त्री, आ. विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि, डा. सूर्यकांत शास्त्री, पंडित क्षेमचंद्र सुमन, डा. नगेन्द्र ( व्यवहारिक समीक्षा), तुलनात्मक समीक्षा पद्धति के जन्मदाता पद्मसिंह शर्मा, डा. मुंशी राम शर्मा, डा. विजयेन्द्र स्नातक, डा. सरयू प्रसाद अग्रवाल, डा. सुरेश कुमार विद्यालंकार, डा. हरदेव बाहरी आदि|
आर्य समाजी टीकाकार
पंडित पद्मसिंह शर्मा, डा. बाबूलाल सक्सेना, डा. वासुदेव सहारण अग्रवाल आदि |
आर्य समाजी इतिहासकार
डा. सूर्यकांत शास्त्री, डा. चर्तुरसेन शास्त्री, डा. विजयेन्द्र स्नातक, आ. क्षेमचन्द्र सुमन, डा. हरिवंश कोछड़, डा. धर्मवीर भारती, डा. नागेन्द्र, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आदि|
आर्य समाज के तुलनात्मक साहित्य लेखक
डा. भर्ग सिंह, डा. विजयवीर विद्यालंकार, चंद्रभाणु सोणवाणे, डा. सुरेश कुमार विद्यालंकार, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु, डा. भवानी लाल भारती आदि|
आर्य समाज के हिंदी कवि
मुंशी केवल कृष्ण चारण,उमरदान, कविकुमार शेरसिंह वर्मा, पंडित बलभद्र मिश्रा, पंडित बाबूलाल शर्मा, सेठ मांगीलाल गुप्त, कविकिंकर नाथू राम शंकर, बद्रीदत्त शर्मा जोशी, नारायण प्रसाद बेताब, ठाकुर गदाधर सिंह, पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति, स्वामी आत्मानंद, श्री कर्ण कवि, स. जसवंतसिंह टोहानवी, भूरा लाल व्यास, हरिशंकर शर्मा, विद्याभूषण विभु, पंडित चमूपति, पंडित बुद्धदेव विद्यालंकार, पंडित दुलेराम देवाकरणी, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, पंडित विश्वंभर सहाय प्रेमी, राजकुमार रणवीर सिंह, पंडित अनूप शर्मा, पंडित सिद्धगोपाल कविरत्न, पंडित भद्रजीत चन्द्र, श्री हरिशरण श्रीवास्तव मराल, पंडित धर्मदत्त विद्यालंकार, राजा रणन्जय सिंह, डा. सूर्यदेव शर्मा, गायत्री देवी, डा. मुंशीराम शर्मा सोम, पंडित प्रकाश चन्द ‘कविरत्न’, पंडित सत्यकाम विद्यालंकार, स्वामी सत्यप्रकाश जी, पंडित अखिलेश शर्मा, पंडित लक्ष्मी नारायण शास्त्री( नारायणमुनि चतुर्वेदी), पंडित विद्यानीधि शास्त्री, रामनिवास विद्यार्थी, डा. सुशीला गुप्ता, कृष्णलाल कुसुमाकर, पंडित रमेशचंद्र शास्त्री, रामनारायण माथुर,(स्वामी ओम प्रेमी), प्रो.उत्तमचंद शरर, पंडित ओंकार मिश्र प्रणव, डा. ,मदन मोहन जावलिया, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु, कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर, कुँ. जोरावर सिंह, प्रभादेवी, राधेश्याम आर्य, पंडित सत्यपाल पथिक आदि|
आर्य समाजी हिंदी आत्मकथा लेखक
स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, भवानी दयाल संन्यासी, पंडित नरेंद्र जी, स्वामी विद्यानंद सरस्वती, स्वामी वेदानंद सरस्वती, भाई परमानंद, सत्यव्रत परिव्राजक, देवेन्द्र सत्यार्थी, पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय, गंगाप्रसाद जज, आचार्य नरदेव, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, महात्मा नारायण स्वामी, पंडित इंद्र विद्यावाचस्पति, संतराम बी ए , पृथ्वी सिंह आजाद, आचार्य रामदेव, सत्यव्रत सिधान्तालंकार , पंडित रुचिराम जी, डा.भवानी लाल भारतीय, पंडित युधिष्ठिर मीमांसक, लाला लाजपत राय, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु, डा, अशोक आर्य, पंडित कमलेश कुमार आर्य अग्निहोत्री आदि|
हिंदी गद्य में जीवनी लेखक आर्य समाजी
गोपालराव हरि देशमुख, चिम्मनलाल वैश्य, सत्यव्रत शर्मा द्विवेदी, दयाराम मुन्शी, रामविलास शारदा, चौ रायसिंह, स्वामी सत्यानन्द, दीपचंद्र, जगदीश विद्यार्थी ( स्वामी जगादीश्वरानंद), त्रिलोक चन्द आर्य, म. आनंद स्वामी, पंडित मुनीश्वर देव, भूदेव शास्त्री, वैद्य गुरुदत्त, डा. भवानी लाल भारतीय, प्रा. राजेन्द्र जिग्यासु, डा. अशोक आर्य, श्रीमती राकेश रानी, विश्वंभर प्रसाद शर्मा, हरिश्चंद्र विद्यालंकार, इंद्र विद्यावाचस्पति, भारतेन्द्र नाथ, वेदानंद तीर्थ, श्रीराम शर्मा, स्वामी वेदानंद सरस्वती (दयानंद तीर्थ), सत्यप्रिय शास्त्री, डा. रामप्रकाश, आ. विष्णुमित्र, अलगुराय शास्त्री, प्रा. रामविचार, भक्त राम, डा. देशराज, सत्यव्रत, अवनींद्र, कृष्ण दत्त, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित शंकर शर्मा, वीरेंद्र सिद्धू, ईश्वर प्रसाद वर्मा, धर्मवीर, उषा ज्योतिष्मती, स्वामी स्वतान्त्रानंद, देवी लाल पालीवाल, डा. बृजमोहन जावलिया, फतहसिंह मानव, दीनानाथ शर्मा, परमेश शर्मा, रघुवीर सिंह शास्त्री, पृथ्वीसिंह आजाद, ओमप्रकाश आर्य, महावीर अधिकारी, परमेश शर्मा, भाई परमानंद, जगदीश्वर प्रसाद, पंडित लेखराम जी आदि|
हिंदी के संस्मरण, यात्रा वृत्तांत,शिकार कथा, नाटक- एकाकी लेखकों की भी आर्य समाज में भरमार है|
वास्तव में हिंदी साहित्य की सेवा के क्षेत्र में आर्य समाजियों के नामों की पूर्ण गणना कर पाना संभव नहीं है| इतना कहा जा सकता है कि हिंदी लेखन क्षेत्र में आर्य समाजियों की असीमित संख्या के अतिरिक्त ऐसे भी सैंकड़ों नाम मिलेंगे , जो सीधे रूप में आर्य समाजी न होते हुए भी आर्य समाज से प्रभावित हैं|
डॉ.अशोक आर्य
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