यज्ञों से मैं लोकहित के मार्ग पर चलूं
यज्ञों से मैं लोकहित के मार्ग पर चलूं
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय़ के दूसरे मंत्र मे यज्ञ की पवित्रता पर बल देते हुए कहा है कि इससे पवित्रता आती है , ज्योतिर्मय अर्थात् सब ओर प्रकाश फैलाने वाले, अनेक प्रकार की शक्तियों से संपन्न, प्राणशक्ति से भरपूर हो लोकहित करने वाले बनते हैं | इस प्रकार अपने को शक्ति से दृढ़ बना कर कभी भी कुटिलता को अपना कर अपने लिए दंड का कारण नहीं बनते | मंत्र इस प्रकार है : -
वसो: पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मोऽसि विश्वधाऽअसि।
परमेण धाम्ना दृंहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्ह्वार्षीत् || याजुर्वेद 1.2 ||
इस मंत्र मे परमपिता परमात्मा ने जीव का ध्यान आठ बातों की ओर दिलाया है , जो इस प्रकार है :-
1. यज्ञ से हम पवित्र बनते हैं :-
इस मंत्र को आरंभ करते हुए परम पिता ने जो शब्द दिए हैं, वह हैं वसो: पवित्रम्सि अर्थात् हे जीव ! तू प्रतिदिन यज्य करने वाला होने के कारण पवित्र बन गया है क्योंकि यज्ञ ही पवित्रता का सर्वोतम साधन है | प्रभु कहते हैं कि यज्ञ के जितने गुण जीवन में आते हैं, उतने अंश तक ही हमारा जीवन उतम बनता जाता है , पवित्र बनता जाता है | यज्ञज्य का भाव प्रार्थना से होता है , परोपकार से होता है | यज्ञ पुण्य का प्रमुख साधन है | यह एक एसा दान है जिस के संबंध में हम जानते ही नहीं कि हमारे इस दान का उपभोग , इस दान का लाभ किस - किस ने लिया है |
इस के उलट यदि हम कुछ करते हैं यथा अयज्ञ के कार्य करते हैं तो इस में हमारा स्वार्थ स्पष्ट दिखाई देता है | इस में परोपकार न हो कर पराकार निहित होता
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है , इस में दूसरे को पीड़ा देने की भावना रहती है तथा यह सब पाप का कारण बनता है |
2. यज्ञ से ही जीवन प्रकाशमय बनता है :-
प्रभु कहते हैं धौ: असि अर्थात् यज्ञ से मानव का जीवन प्रकाशमय बन जाता है | यज्ञ की अग्नि से सब ओर प्रकाश फैलता है । इस के करने से गुप्त रूप से दूसरों की सहायता करने की भावना बलवती होती है | जिस प्रकार इससे न जाने कितने लोगों का उपकार होता है , उस प्रकार ही हम भी चाहते हैं कि हम भी एसा परोपकार करने, एसे धन से दूसरों की साहयता करें कि हमें पता ही न चले कि हमने किस - किस की सहायता की है | किसी पर कभी एहसान जता ही न सकें , दिखा ही न सकें | इस प्रकार के कार्यों के कारण हमारा मस्तिष्क रूपी सूर्य द्युलोक में ज्ञान के सूर्य के समान सब ओर प्रकाश फ़ैलता है , सब को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करता है | इस में प्रथम स्थान पर देवपूजा को दिया गया है | जब हम देवपूजा अर्थात् हवन करते हैं तो यह देवपूजा हमारे मस्तिष्क को अधिक ही नहीं ओर भी अधिक प्रकाशित करती चली जाती है |
3. यह हमारी शक्तियों को ब़ढाता है :-
यज्ञ से मानवीय शक्तियाँ बढ़ती हैं | इस लिए इस मंत्र के शब्द पृथ्वी असी के माध्यम से बताया है कि हे मानव ! यज्ञ से तेरी शक्तियां बढ़ती हैं | इस लिए तूं एसा उपाय कर कि जिन के कारण तेरी शक्तियां बढ़ें | इस के उल्ट कार्य करने से फल भी उल्ट ही होता है | मानव जीवन मे कभी एसे कार्य न किए जावें कि जिनके कारण से शक्तियों का ह्रास हो, सदा एसे ही काम करें , एसे ही उपाय करें कि जिन से हमारी शक्तियों की वृद्धि हो सके | स्पष्ट है कि यह यज्ञ हमारी शक्तियों को बढ़ाने वाला है |
4. प्राणशक्ति बढ़ती है :-
य़ज्ञ से मानव की प्राणशक्ति बढ़ती है तथा यह प्राण शक्ति ही है , जिससे मानव का जीवन संभव होता है | यदि शरीर से प्राण शक्ति एक क्षण के लिए भी चली जाती है तो यह शरीर बेकार हो जाता है , लोग कहते हैं कि इस की मृत्यु हो गयी है | इस लिए हम अपनी प्राण शक्ति को बढ़ाने के लिए यह उपाय , यह क्रिया
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अवश्य करें तथा अपनी जीवणीय शक्ति को बढ़ावें |
5. शक्ति से सबको धारण करने वाला बन :-
हे मानव ! जो तेरी प्राण शक्ति बढ़ी है , उसका उपयोग तू दूसरों को धारण करने में लगा | इसके लिए मंत्र में कहा है कि विश्वधा: असी अर्थात् तूं सब को धारण करने वाला बन | यह जो शक्ति तुझे मिली है यह किसी प्रकार के स्वार्थ में न लगे , अपने ही हित को बढ़ाने के लिए इस का प्रयोग न कर बल्कि तू इस शक्ति का उपयोग दूसरों की सहायता में, दूसरों के सहयोग में, दूसरों के हित साधन में लगा, दूसरों को उठाने मे लगा | इस प्रकार दूसरों की रक्षा का कारण बन |
6. उत्कृष्ट तेज पा कर तू अपने को दृढ़ बना :-
हे मानव ! , हे जीव ! तू इस बात को जान कि शक्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं :
क) उत्कृष्ट शक्ति :
तेरी वह शक्ति , जो दूसरों के हित के लिए प्रयोग की जावे , उसे उत्कृष्ट शक्ति के रूप मे जाना जाता है |
ख) निकृष्ट शक्ति :-
जब तूं ओरों की हानि करता है तथा उनके नाश की कामना करता है तो तेरी यह शक्ति निकृष्ट शक्ति बन जाती है |
ग) मध्यम शक्ति : -
जब तू स्वावलंबी हो जाता है , स्वार्थी हो जाता है तथा अपनी वृद्धि में , अपनी उन्नति में ही सीमित हो जाता है तो इस प्रकार की शक्तियों को मध्यम शक्ति कहते हैं |
इन शक्तियों में उतकृष्ट तेज अथवा उतकृष्ट शक्ति ही स्रवॉतम मानी गई है | मंत्र में भी कहा है कि परमेण धामना अर्थात् उतकृष्ट तेज से तू द्र्णहसव अर्थात् अपने को दृढ बना ओर अपने को दृढ़ बना कर सबको धारण करते हुए तूं विश्वधा बन | इस प्रकार प्रभु का आदेश है कि हे मानव ! तूं सब शक्तियों को प्राप्त करके सब को धारण करने वाला बन अर्थात् परोपकार की भावना में रम जा , इसे हाथ से मत
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जाने दे तथा सदा सब का सहयोगी बन, मार्ग दर्शक बन | यही यश का मार्ग है , यही कीर्ति का मार्ग है |
7. सदा सरल मार्ग पर चल :-
प्रभु आगे उपदेश देते हैं कि हे जीव ! तूं कभी भी कुटिलता से भरे मार्ग पर न चल | कुटिल मार्ग पर चलने वाले का सदा अपयश ही होता है | यश पाने के लिए यह मार्ग श्रेय नहीं है | दूसरों की सहायता करना ही श्रेय मार्ग है | इस लिए तूं सदा सरल व सुपथ पर ही चल | यज्ञ भी तो यह ही उपदेश देता है | अत: य़ज्ञीयता व कुटिलता कभी एक साथ नहीं चल सकते | इस लिए तूं कुटिलता , धोखा , विश्वासघात से सदा दूर रह |
8. तेरे लिए पिता कभी कठोर न हो :-
अंत में मन्त्र कहता है कि हे जीव ! जहाँ तक तेरा संबंध है , तेरे लिए वह प्रभु कभी कठोर न हो | जो आदेश उस पिता ने तुझे कहा है , आदेश दिया है , उसे तूंने यथावत् स्वीकार कर लिया , यथावत् उस पर आचरण किया तो प्रभु तेरे लिए कठोर कैसे बन सकता है ? प्रभु के इस शांत उपदेश को तूं सदा सुनता रह तथा उस के अनुसार कर्म कर | यदि तूं एसा करेगा तो प्रभु को तेरे लिए दान , भेद ओर दण्ड के प्रयोग की आवश्यकता ही न पड़ेगी | प्रभु सरलता को पसंद करता है | यह ही उस पिता को पाने का उतम साधन है | इस सरल मार्ग पर चलने से ही हे जीव ! तू परमेष्ठी अर्थात् परम स्थान को पा सकेगा | इस प्रकार यज्ञ की भावना को अपनाने के कारण प्रजापति बन जावेगा |
डा. अशोक आर्य
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२०१०१२ गाजियाबाद उ.प
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