“वैदिक धर्मियों के लिये राष्ट्र वन्दनीय है तथा सत्यार्थप्रकाश इसका पोषक है”

 ओ३म्

“वैदिक धर्मियों के लिये राष्ट्र वन्दनीय है तथा सत्यार्थप्रकाश इसका पोषक है”

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संसार में मत-मतान्तर तो अनेक हैं परन्तु धर्म एक ही है। वेद ही एकमात्र सर्वाधिक व पूर्ण मानवतावादी धर्म है। वेद में निर्दोष प्राणियों, मनुष्य व पशु-पक्षी आदि किसी के प्रति भी, हिंसा करने का कहीं उल्लेख नहीं है। वेद की विचारधारा मांसाहार को सबसे बुरा मानती है। वेद मनुष्य को सभी प्राणियों के प्रति दया, प्रेम, करूणा, ममता, स्नेह, समभाव, स्वात्मवत-भावना रखने की प्रेरणा करते हैं। आर्यसमाज के संस्थापक व वेदों के महान ऋषि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि मनुष्य उसी को कहना चाहिये कि जो सभी मनुष्यों के प्रति स्वात्मवत् सुख व दुःख व हानि लाभ की भावना रखते हों। वह जैसा अपने लिये सुख व दुःख को मानते हैं उसी प्रकार से दूसरे मनुष्यों व प्राणियों के लिये भी माने। हमें कांटा लगने पर दुःख होता है तो वह यह समझे कि दूसरों को भी ऐसा ही दुःख होता है, इसलिये वह दूसरों के प्रति वह व्यवहार कदापि न करे जिससे उन्हें स्वयं को दुःख होता है। वह उस व्यवहार को दूसरों के प्रति न तो स्वयं करें और न ही किसी और को करने दे। यदि कोई ऐसा अपराध करता है तो वह मनुष्य अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसका विरोध करे और यदि सम्भव न हो तो बलशाली शक्तियों की सहायता से अपने मनोरथ को क्रियान्वित करे। 


ऐसा होने पर ही संसार मानवतावादी बन सकता है अन्यथा नहीं। आजकल यह व्यवहार संसार में बहुत कम देखने को मिलता है। वैदिक मत व इसका अनुयायी संगठन आर्यसमाज तो इसका पूर्णतः पालन करता है परन्तु सभी मत ऐसा नहीं करते। इसके लिये लोगों को वैदिक धर्मियों एवं अन्य मतावलम्बियों का सत्य इतिहास खोज कर पढ़ना चाहिये। आजकल मीडिया के जमाने में बहुत सी वह सत्य बातें भी लोगों तक पहुंची हैं जो पहले नहीं पहुंच पाती थी। आज मीडिया भी राष्ट्रवादी और अराष्ट्रवादियों में बंटा हुआ है। सत्य की सदा सर्वदा जीत होती है परन्तु वह तभी होती है कि जब सत्यवादी व सत्याग्रही असत्य के सामने पूरी शक्ति से मुकाबला करे और उसके साथ अहिंसा व सत्य का व्यवहार करते हुए भी आवश्यकता के अनुरूप यथायोग्य अर्थात् जैसे को तैसे का व्यवहार करे। ऐसा करना अहिंसा की रक्षा करना होता है। प्रधान मंत्री श्री मोदी जी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने पाकिस्तान के पुलवामा व उरी आदि के दुष्कर्मों का व वहां घटित हिंसक घटनाओं का यथायोग्य व उनकी ही भाषा, नीति, सिद्धान्तों व व्यवहार के अनुरूप उत्तर दिया है जिसका परिणाम देश व जनता के सामने हैं। इससे देश में हिंसक व आतंकवादी घटनाओं में कमी आयी है। अभी इस यथायोग्य व्यवहार को और कड़ा करने की आवश्यकता है। 


देश के अन्दरूनी शत्रुओं के प्रति भी यथायोग्य व्यवहार होगा तो देश के सभी लोगों को लाभ होगा। अनुमान होता है कि देश में बहुत सी शक्तियां सत्ता व अपने अनेकानेक स्वार्थों के लिये देशी-विदेशी शक्तियों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये उनसे लाभ प्राप्त कर उनके लिये गुप्त रीति से काम करती है। वह कुतर्कों के द्वारा देश की जनता को भ्रमित करती हैं। ऐसे लोगों व कुतर्कियों से देश व जनता को सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर अराष्ट्रीय शक्तियों का स्वयं पराभव हो जायेगा। दुःख है कि हमारे देश में शत-प्रतिशत लोग शिक्षित व विवेकवान नहीं है। यदि सन् 1947 से ही देश की जनता शिक्षित एवं विवेकी होती, निष्पक्ष एवं जाति, क्षेत्र, भाषा आदि संकीर्ण भावनाओं से ऊपर होती, तो देश आज विश्व का सर्वोच्च शक्तिशाली एवं उन्नत देश होता। इसका कारण सत्य ज्ञान के पोषक लोगों का आलस्य और प्रमाद मुख्य रहा है। हमें अपनी समान विचारधारा के लोगों को सत्य को समझाकर उन्हें ईश्वर, सत्य, वेद, विश्वबन्धुत्व, मानवतावाद आदि मुद्दों के आधार पर संगठित करना चाहिये। यदि हम सभी देशभक्त व भारत माता की जय बोलने वाले सभी लोग संगठित हो जायें तो देश की प्रमुख समस्या साम्प्रदायिकता, देशद्रोह व आतंकवाद की प्रवृत्तियों आदि पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है। 


देश के सभी राष्ट्रवादी एवं देश को सर्वोच्च मानने वाले लोग संगठित एवं एक मत नहीं है। इसी बात का लाभ हमारे विरोधी, विद्वेषी लोग व संगठन उठाते हैं और अनेक शताब्दियों से शान्तिप्रिय आर्य हिन्दुओं को दुःखी करते आ रहे हैं। हमें ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान वेद व सच्चे ईश्वर से परिचित कराया है। हमें वेद और ईश्वर की ही शरण लेनी चाहिये। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारा उद्धार होगा। इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द रचित वेदानुकूल व वैदिक सत्य सिद्धान्तों से युक्त सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना होगा। इसको समझ लेने पर हमें क्या करना है, क्या नहीं करना है, कौन हमारा मित्र है और कौन शत्रु है, इन सब विषयों का ज्ञान हो जायेगा। सत्यार्थप्रकाश दो भागों में है जो एक ही पुस्तक में पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध के नाम से हैं। यदि कोई मनुष्य पूर्वार्द्ध के लगभग 200 पृष्ठ भी पढ़ लेता है तो उसके जीवन का कल्याण हो सकता है। विश्व में शान्ति स्थापित केवल वेद, वैदिक साहित्य और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रन्थों से ही हो सकती है। यह ज्ञान व विवेक वैदिक साहित्य के निरन्तर चिन्तन व मनन से वर्षों के अनुभव से प्राप्त होता है। 


हमें अपने जीवन की उन्नति व उत्थान के लिए अविलम्ब सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन तो आरम्भ कर ही देना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश मात्र 10 से 50 रुपये में वीपीपी से घर बैठे प्राप्त किया जा सकता है। हम समझते हैं कि जिस व्यक्ति ने राग-द्वेष छोड़कर पूर्ण निष्पक्षता से सत्यार्थप्रकाश को पढ़ा है वह सौभाग्यशाली है। जिसने नहीं पढ़ा, उसका भाग्योदय नहीं हुआ है। सत्यार्थप्रकाश किसी मत-विशेष का पुस्तक नहीं अपितु मानवमात्र की हितकारी औषधि के समान है जिससे सभी प्रकार की अज्ञानताओं का निवारण और सत्य ज्ञान का आत्मा में प्रवेश होता है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये। देरी करने से जीवन को अप्रत्याशित हानि होती है। समय पर यदि हम कोई काम छोड़ देते हैं तो उससे पूरे जीवन में क्लेश होता है। एक कहावत भी है ‘लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई’। यह कहावत हिन्दुओं व आर्यों पर खरी उतरती है। 


आज ही हम अन्य कामों को करते हुए प्रतिदिन आधा से एक घंटे का समय निकालें और सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना आरम्भ कर दें। हो सकता है कि एक बार पढ़ने पर सत्यार्थप्रकाश की सभी बातें समझ में न आयें तो इसे दूसरी बार, तीसरी व चौथी बार पढ़े। ज्ञान की पुस्तकों में कुछ बातों को एक से अधिक बार पढ़ना ही पढ़ता है जब तक की वह समझ में न आ जायें। ऐसा ही सत्यार्थप्रकाश भी है। सच्चे मनीषी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने सत्यार्थप्रकाश को लगभग 18 बार पढ़ा था। उनका कहना था कि मुझे प्रत्येक बार सत्यार्थप्रकाश के कुछ स्थलों के नवीन अर्थों की प्राप्ति व उपलब्धि हुई है। पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी की मृत्यु मात्र 26 वर्ष की आयु में हो गई थी। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘टर्मिनोलोजी आफ वेदाज’। यह पुस्तक आक्सफोर्ड में पाठ्यक्रम में निर्धारित की गई थी। इससे सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से लाभ व इसके महत्व को समझा जा सकता है। 


हम सत्यार्थप्रकाश की महत्ता के कारण ही इसे पढ़ने की प्रेरणा कर रहे हैं परन्तु हमें यह साधन प्राप्त नहीं हुआ था। हमें जीवन में किसी ने सत्यार्थप्रकाश का महत्व नहीं बताया था। हम अपने किशोरावस्था के एक मित्र की प्रेरणा से आर्यसमाज के सत्संगों में जाया करते थे। वहां विद्वानों के प्रवचनों, सन्ध्या-यज्ञ सहित भजनों ने हम पर जादू कर दिया था। हमने जो बातें आर्यसमाज में सुनी, उनकी उपलब्धि न पाठ्य पुस्तकों में होती थी, न माता-पिता से और नही ही स्कूल के आचार्य व अध्यापक बताते थे। देश की सरकार भी उन महत्वपूर्ण व जीवन में आवश्यक बातों का स्कूली शिक्षा के माध्यम से प्रचार भी नहीं करती थी। हमने विद्वानों के अनुभवों पर आधारित व्याख्यानों को सुनने के साथ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन किया जिसका परिणाम हमारा वर्तमान जीवन है। 


हम अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज तथा सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य को लाभ ही लाभ होता है तथा हानि किंचित नहीं होती। आर्यसमाज और इसका साहित्य मनुष्य की बौद्धिक व आत्मिक क्षमताओं को बढ़ाता है। इसीलिये शारीरिक तथा आत्मा की उन्नति के लिए युवकों को आर्यसमाज का सदस्य बनकर सत्यार्थप्रकाश का नियमित अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश सभी तुलनात्मक दृष्टि से मत-पन्थों के ग्रन्थों में उत्तम ग्रन्थ है जिसका प्रत्यक्ष इसके उत्तरार्ध के चार समुल्लास पढकर होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर सत्य व असत्य का ज्ञान होता है तथा इसका अध्ययन सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग कराता है। 


सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ राष्ट्र की वन्दना करने की शिक्षा व प्रेरणा करता है। जिस प्रकार एक पौधे को जल व खाद देने से वह पनपता व बढ़ता है, उसी प्रकार से राष्ट्र को अपनी भक्ति, वन्दना व समर्पण करने से तथा अपना सर्वस्व राष्ट्र को अर्पित करने से राष्ट्र रक्षित एवं समृद्ध होता है तथा दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों से राष्ट्र की रक्षा होती है। वीर सावरकर जी व अनेक क्रान्तिकारी सत्यार्थप्रकाश के प्रशंसक थे। सत्यार्थप्रकाश से अविद्या दूर होकर ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का भी बोध होता है तथा मनुष्य का परलोक भी सुधरता है। मनुष्य इसे पढ़कर इसके अनुसार आचरण कर आवागमन के चक्र से भी मुक्त हो सकता है। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य 


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