-गुरुकुल पौंधा में 47 ब्रह्मचारियों के उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न-

 ओ३म्

-गुरुकुल पौंधा में 47 ब्रह्मचारियों के उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न-

“गुरुकुलीय आर्ष विद्या जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त 

करने का साधन है: स्वामी चित्तेश्वरानन्द”

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सोमवार, दिनांक 22-8-2022 को श्रीमद्दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकुल, पौंधा, देहरादून में 47 ब्रह्मचारियों का उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया। इस अवसर पर आर्यजगत के सुप्रसिद्ध संन्यासी स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी का प्रभावशाली उपदेश हुआ। स्वामी जी ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में कहा कि ब्रह्मचारियों का सौभाग्य है कि उन्हें इस पवित्र गुरुकुल में पढ़ने का अवसर मिल रहा है। आर्ष विद्या जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन है। यह विद्या हमारे इन गुरुकुलों में मिलती है। ब्रह्मचारियों को गुरुकुल में अध्ययन करते हुए इस विद्या को पढ़कर इससे लाभ उठाना है और विद्वान बनना है। मनुष्य की विशेषता उसका धर्म से युक्त होना होता है। धर्म से वियुक्त मनुष्य पशु के समान होता है। विद्या जीवन की उन्नति सहित हमारे मोक्ष प्राप्ति का साधन होती है। स्वामी जी ने कहा कि मनुष्यों में गुणों के बढ़ने से विनम्रता तथा पवित्रता आती है। हमें गुणों का ग्रहण करना है। स्वामी जी ने कहा कि हमें मधुमक्खियों के समान रस का ग्राही बनना है। हमें आदर्श विद्यार्थी तथा तथा नागरिक बनना है। हमें ऋषि दयानन्द तथा स्वामी श्रद्धानन्द आदि महापुरुषों के समान बनना है। 


स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी ने कहा कि आत्मा का उद्देश्य सब दुःखों से छूटकर परमानन्द को प्राप्त करना है। यही मुक्ति है। हम आत्मा हैं। आत्मा कभी मरता नहीं है। आत्मा का कभी जन्म अर्थात् उत्पत्ति नहीं हुई है। हमारा आत्मा अनादि तथा नित्य है। स्वामी जी ने नित्य पदार्थों की परिभाषा भी बताई। स्वामी जी ने कहा कि कि जिस पदार्थ का कोई उपादान कारण न हो वह नित्य होता है। उन्होंने आगे कहा कि आत्मा का कोई उपादान कारण नहीं है, इसलिए यह नित्य है। 


स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी ने कहा कि कार्य का कारण अवश्य होता है। बिना कारण का कोई कार्य नहीं होता। आत्मा अल्पज्ञ है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है। परमात्मा सर्वव्यापक भी है। स्वामी जी ने सभी ब्रह्मचारियों को कहा कि आपको विद्या की प्राप्ति में पूरी शक्ति लगानी है। उन्होंने बताया कि उत्तम संस्कारों से ही संस्कृति बनती है। आपको गुरुकुल मे अध्ययन करके अपने जीवन को उन्नत बनाना है। 


कार्यक्रम का उत्तम संचालन गुरुकुल के आचार्य डा. शिवकुमार वेदि जी ने बहुत उत्तमता से किया। उन्होंने वैदिक धर्म की विशेषताओं पर अपने विचार भी प्रस्तुत किये। स्वामी जी के सम्बोधन से पूर्व उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार की समस्त विधि पूरी की गई। आरम्भ में स्वस्तिवाचन के मन्त्रों के उच्चारण सहित यज्ञ हुआ। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने भी यज्ञ के आरम्भ में ब्रह्मचारियों एवं श्रोताओं को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि हम ब्रह्मचारियों को गुरुकुल में प्रवेश करा रहे हैं। उन्होंने बताया कि यज्ञ से पूर्व यजमान व ब्रह्मचारी का यज्ञोपवीत संस्कार कर उन्हें यज्ञोपवतीत दिया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि आचमन को करके यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद ही किसी मनुष्य को यज्ञ में आहुति देने का अधिकार प्राप्त होता है। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वतीजी ने गुरुकुल के आचार्य डा. यज्ञवीर जी के गुणों की प्रशंसा की। स्वामी जी ने कहा कि डा. यज्ञवीर जी की गुरुकुल में उपस्थिति और अध्यापन कार्य यहां के सभी ब्रह्मचारियों के लिए सौभाग्यकारी है। स्वामी जी ने कहा कि ब्रह्मचारियों पर माता-पिताओं तथा आचार्यों का ऋण होता है। इस बात को सभी ब्रह्मचारी जानते हैं। स्वामीजी ने यज्ञोपवीत के महत्व पर शास्त्रीय दृष्टि से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यज्ञोपवीत विद्या का प्रतीक है तथा आयु को बढ़ाने वाला है। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी के पश्चात कार्यक्रम का संचाचलन करे आचार्य डा. शिवकुमार वेदि जी ने संस्कारविधि को पढ़कर यज्ञोपवीत व उपनयन संस्कार का महत्व बताया। यज्ञ में उपनयन तथा वेदारम्भ संस्कार की सब विधियां एवं क्रियायें विधि के अनुसार सम्पन्न की गईं। सूर्यदर्शन, भिक्षा, दण्ड धारण सहित मेखला बन्धन की क्रियायें भी सम्पन्न हुई। 


संस्कार करते हुए उस मन्त्र का पाठ भी किया गया है जिसका भाव है कि आचार्य तथा ब्रह्मचारी का चित्त व मन सदा समान हों। सभी ब्रह्मचारियों ने इस मन्त्र का उच्चारण किया। ब्रह्मचारियों द्वारा अग्नि को इकट्ठा करने की क्रिया भी की गई। इसका उद्देश्य बताये हुए आचार्य शिवकुमार वेदि जी ने कहा कि आपको जहां से भी विद्या मिले, उसे एकत्र कर लेना चाहिये। आचार्य डा. यज्ञवीर जी ने ब्रह्मचारियों को गायत्री मन्त्र का उपदेश किया। 


पितृोपदेश करते हुए पं. विद्यापति शास्त्री जी ने कहा कि गुरुकुल के ब्रह्मचारी इस लिये स्वस्थ रहते हैं क्योंकि उनकी दिनचर्या नियमित रहती है। उन्होंने कहा कि संस्कार यदि कहीं से प्राप्त होते हैं, तो वह गुरुकुल से होते हैं। पितृ उपदेश पूरा होने पर ब्रह्मचारियों ने खड़े होकर व सिर झुका कर कहा कि जैसा आपने हमें उपदेश किया है हम वैसा ही आचरण करेंगे। नमस्कार कर ब्रह्मचारी अपने स्थान पर बैठ गये। इसके बाद सभी ब्रह्मचारियों ने भिक्षा ग्रहण की। 


इसके बाद भजन एवं विद्वानों के उपदेश हुए तथा शान्ति पाठ के साथ उपनयन एवं वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न हुआ। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य

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