"हे अग्ने ! जो लोग तुम्हारे इस मित्र तेज से मैत्री करते हैं वे संसार में 'आर्य' कहलाते हैं

 [09:25, 20/8/2022] Da Vivek Arya Delhi: "हे अग्ने ! जो लोग तुम्हारे इस मित्र तेज से मैत्री करते हैं वे संसार में 'आर्य' कहलाते हैं। पर जो इस स्नेह करनेवाले तेरे तेज से द्वेष करते हैं, जिन्हें यह तेरा तेज अच्छा नहीं लगता, वे ही 'दस्यु' नाम से पुकारे जाते हैं।"

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त्वे असुर्यं वसवो न्यृण्वन क्रतुं हि ते मित्रमहो जुषन्त। त्वं दस्यूँ रोकसो अग्न आज उरु ज्योतिर्जनयन्नार्याय।।

-ऋक्०७।५।६ 

ऋषिः - वसिष्ठः। 

देवता - वैश्वानरः। 

छन्द: - त्रिष्टुप्। 

विनय - हे अग्ने ! तुझमें आश्रय लेकर ये पृथिव्यादि वसु अपने असुर्य को, प्राणवत्व को, सामर्थ्य को प्राप्त कर रहे हैं, तुझमें ही आश्रय पाकर ब्रह्मचारी वसु लोग भी अपने प्राणवत्य और प्रज्ञावत्य (बल और ज्ञान) को प्राप्त कर रहे हैं। ये वसु इस सामर्थ्य को इस लिए पा रहे हैं, बल्कि तेरे आश्रय को भी इसलिए पा रहे हैं, चूँकि ये तेरे 'ऋतु' का सेवन करते हैं। इस संसार में जो तेरा महान् कर्म चल रहा है उसका ये सेवन करते हैं, उसके आचरण करते हैं। तेरे महान् संकल्प व ज्ञान के अनुसार ये अपना व्यवहार, कर्म करते हैं। परन्तु जो लोग तेरे 'ऋतु' का सेवन नहीं करते हैं वे तेरे इस घर से बहिष्कृत हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। हे अग्ने! तुम तो 'मित्रमहः' हो। तुम्हारा तेज मित्र है, स्नेह करनेवाला है। जो लोग तुम्हारे इस मित्र तेज से मैत्री करते हैं वे संसार में 'आर्य' कहलाते हैं। पर जो इस स्नेह करनेवाले तेरे तेज से द्वेष करते हैं, जिन्हें यह तेरा तेज अच्छा नहीं लगता, वे ही 'दस्यु' नाम से पुकारे जाते हैं। क्योंकि, इस तेज से मैत्री करनेवाले ही तेरे इस तेज को, प्रकाश को प्राप्त कर सकते हैं। अत: वे ही तेरा प्रकाश पाकर श्रेष्ठाचरणवाले अर्थात् आर्य बनते हैं। अपने स्वार्थमय क्षुद्र प्रकाश में मस्त रहनेवालों, दूसरे 'दस्यु' लोगों को तेरी विस्तृत ज्योति प्राप्त नहीं होती। दस्यु अर्थात दूसरों का उपक्षय करनेवाले वे इसलिए बनते हैं क्योंकि वे स्वार्थान्ध होते हैं, क्योंकि वे प्रकाश से प्रेम न रखने के कारण तेरी विस्तृत ज्योति को न पाकर अपने में अन्धे होते हैं। अतएव जब तू अपने किसी घर में, किसी लोक में विस्तृत ज्योति को प्रकाशित कर देता है तो वहाँ ये अन्धकारप्रिय दस्यु नहीं ठहर सकते। वहाँ से ये निकल जाते हैं। इस प्रकार, हे मित्रमहः ! तू आर्यों के लिए महान् ज्योति देता हुआ दस्युओं को निकाल रहा है, इस प्रकार तेरे ऋतु का सेवन करनेवालों को अपना सहारा देता हुआ, ऐसा न करनेवालों को इस परम अवलम्बन से वञ्चित रख रहा है और इस प्रकार तू तेरा सहारा लेनेवालों को प्राण व बल देता हुआ दूसरों को विनष्ट कर रहा है।

शब्दार्थ - (वसवः) वसु (त्वे) तुझमें [आश्रित हो] (असुर्यं) प्राणवत्व को, सामर्थ्य को (नि ऋण्वन्) प्राप्त कर रहे हैं, (हि) क्योंकि वे (ते) तेरे (ऋतुं) कर्म का (मित्रमहः) हे मित्र तेजवाले ! (जुषन्त) सेवन करते हैं। (अग्ने) हे अग्ने (त्वं) तू (आर्याय) आर्यों, श्रेष्ठों के लिए (उरु) विस्तृत (ज्योतिः) ज्योति को (जनयन्) प्रकाशित करता हुआ (दस्यून्) दस्युओं, दूसरों का उपक्षय करनेवालों को (ओकसः) घर से (आजः) खदेड़ देता है, निकाल देता है।

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स्रोत - वैदिक विनय। (मार्गशीर्ष १९)

लेखक - आचार्य अभयदेव।

प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।

[09:25, 20/8/2022] Da Vivek Arya Delhi: हिन्दू नेताओं की इस्लाम-परस्ती

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