आदिवासी समाज और ईसाइयत

 आदिवासी समाज और ईसाइयत 


#डॉविवेकआर्य  


भारत जैसे बड़े देश में करोड़ों लोग वन क्षेत्र में सदियों से निवास करते है। कुछ लोग उन्हें आदिवासी कहते है क्योंकि उनका मानना है कि आदिकाल में सबसे प्रथम जनजाति इन्हीं के समान थी। कालांतर में लोग विकसित होकर शहरों में बसते गए जबकि आदिवासी वैसे के वैसे ही रहे। हम इसे भ्रान्ति मानते है। इसलिए आदिवासी के स्थान पर वनवासी उपयुक्त शब्द है। भारत में अधिकांश आदिवासी समाज झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर आदि राज्यों में रहते हैं। यह जनता अत्यंत निर्धन, शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा आदि सुविधाओं से वंचित हैं। भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी विकास से कोसो दूर है। ऐसे में ईसाई मिशनरियों के लिए अत्यंत उपजाऊ खेत है, जिसमें ईसा मसीह की खेती करी जा सके। यह स्थिति आज एकदम से नहीं बनी है। इसी अत्यंत सुनियोजित रूप में अंग्रेज सरकार, ईसाई चर्च और अंग्रेज व्यापारियों ने मिलकर पिछले 200 वर्षों में निर्मित किया। 

1857 में प्रथम संघर्ष के असफल होने के पश्चात हज़ारों कारण हज़ारों क्रांतिकारियों ने जंगलों को अपना घर बनाया और छापे-मार युद्ध के माध्यम से अंग्रेजों और उनके खुशामदियों को बेचैन करने लगे। अंग्रेजों ने तंग आकर 1871 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (Criminal Tribes Act) के नाम से कानून बनाकर वनवासी सत्याग्राहियों को ठग, लुटेरा आदि घोषित कर दिया। वनवासी प्रमुखों को उनके क्षेत्र से बाहर जाने की मनाही कर दी और हर वनवासी को प्रति सप्ताह स्थानीय थाने में जाकर हाजिरी लगाने के लिए बाध्य कर दिया गया। सरकार का जिसका मन होता उसे जेल में डाल देती अथवा फांसी से लटका देती। अंग्रेजों के इस अत्याचार का विरोध मध्य भारत में बिरसा मुंडा और बांसवाड़ा, राजस्थान में गोविन्द गुरु जैसे महानायकों ने किया। सरकार का इस दमन नीति के पीछे दो उद्देश्य थे। पहला 1857 की क्रांति को दोबारा न होने देना दूसरा ईसाई मिशनरियों के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करना। आदिवासी समाज में गरीबी पहले से ही थी। ऊपर से अंग्रेजों के कुप्रबंधन के कारण अकाल, प्लेग आदि प्राकृतिक विपदा ने भारतवासियों की कमर ही टूट गई। वनवासी इलाकों में ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा, चिकित्सा, नौकरी आदि की आड़ में पैर पसारने आरम्भ कर दिए। सरकार ने ईसाई मिशनरियों की सहायता के लिए यह घोषणा कर दी कि जो कोई निर्धनों की सेवा करेगा उसे सरकारी अनुदान दिया जायेगा। यथार्थ में यह अनुदान केवल चर्च और उससे सम्बंधित ईसाई संस्थाओं को दिया जाता था। इस अनुदान के दम पर चर्च प्राकृतिक विपदा में अनाथ हुए बच्चों को गोद लेता था और विधवाओं को आश्रय देता। इन सभी को चर्च धर्मान्तरित कर ईसाई पादरी अथवा प्रचारक बना देता। इनका कार्य विभिन्न जंगली इलाकों में जाकर अपने समान देखने वाले आदिवासियों को ईसाई बनाना था। चर्च को अनुदान देने के लिए सरकार को धन व्यापारी वर्ग मुहैया करवाता था। अंग्रेज व्यापारियों की नीति बड़ी सुनियोजित थी। चर्च उनके लिए ईसाई धर्मान्तरण करेगा। धर्मान्तरित व्यक्ति का केवल धर्म परिवर्तन ही नहीं होगा। उसकी सोच, भाषा, संस्कृति, जीवन का उद्देश्य, जीवन शैली सब कुछ परिवर्तित हो जायेगा। धर्मान्तरित होने वाला व्यक्ति हिंदुस्तानी धोती-कुर्ता के स्थान पर अंग्रेजी पेंट और जूते पहनेगा। सर पर हैट लगाएगा। अंग्रेजी पुस्तकें पढ़ेगा और अंग्रेजी में बोलेगा। इन सभी उत्पादों का उत्पादन अंग्रेज व्यापारी करेगा। इस प्रकार  से अंग्रेज व्यापारियों को अपना सामान बेचकर लाभ कमाने के लिए समुचित चिरस्थायी बाजार मिलेगा। बदले में अंग्रेज सरकार को एक ऐसी जमात मिलती। जो दिखने में तो हिंदुस्तानी होती। मगर अंग्रेज सरकार की हर सही या गलत नीति का समर्थन अंधभक्त के समान करती । जो किसी भी स्थानीय विद्रोह में अपने ही हिंदुस्तानी भाइयों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देती। जो अपने हिंदुस्तानी भाइयों को नीचा और अंग्रेजों को उच्च समझती।  इससे अंग्रेजी राज सदा के ले लिए उस देश में राज दृढ़ हो जाता।  

इस प्रकार से ईसाई चर्च, अंग्रेज सरकार और अंग्रेज व्यापारी तीनों को हर प्रकार से लाभ होता। वर्तमान में भी चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का करोड़ों पौण्ड बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लगा हुआ है। चर्च कंपनियों के माध्यम से जिन देशों में धन कमाता है उन्हीं देशों को उन्हीं का धन चर्च में दान के  नाम पर वापिस भेजता है। इसे कहते है "मेरा ही जूता मेरे ही सर" 

विदेशी सोच वाले विदेशी का तो भला हो गया मगर हमारे निर्धन, अशिक्षित, वंचित देशवासियों को क्या मिला। यह चिंतन का विषय है। काले अंग्रेज बनने और गले में क्रास टांगने के पश्चात आदिवासियों की जीवन शैली में व्यापक अंतर आया। पहले वह स्थानीय भूदेवताओं, वन देवताओं आदि को मानते थे।  अब वो ईसा मसीह को मानने लगे। आदिवासियों में शिक्षा चाहे कम थी। मगर धार्मिक सदाचार उनकी जीवन शैली का अभिन्न अंग था। भूदेवता कहीं रुष्ट न हो जाये, इसलिए अशिक्षित आदिवासी पाप-पुण्य का विचार करता था। भूदेवताओं के नाराज होने से प्राकृतिक विपदा न आये।  इसलिए वह किसी को सताने में विश्वास नहीं रखता था। भूदेवताओं का भय ईसाई बनने के साथ समाप्त हो गया। उसके स्थान पर पाप क्षमा होने की मान्यता प्रचलित हो गई। सारा दिन पाप करो और सांय जाकर चर्च में पापों को स्वीकार कर लो। सभी पाप क्षमा हो जायेंगे। अच्छा तरीका मिल गया। ईसाई बने आदिवासियों में बड़ी तेजी से व्यभिचार, शराब आदि नशे की लत, कुटिलता, जुठ-फरेब, तलाक आदि फैल गए। उत्तर पूर्व भारत इस परिवर्तन का साक्षात प्रमाण है। वहां शिक्षा तो है मगर सदाचार नहीं है। आदमी निकम्मे हो चले है क्योंकि नशे ने उनका जीवन बर्बाद कर दिया है। जबकि औरतें परिवार का पेट पालने के लिए अकेले संघर्ष कर रही है। ऐसे में टूटते परिवार, घरेलू झगड़े, विवाद आदि ने समाज को हिला कर रख दिया है।  

                         मगर ईसाई चर्च को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि उसका राजनीतिक हित सुरक्षित है। सारा ईसाई समाज संगठित होकर पादरी के कहने पर वोट करता है। इसलिए चुनावी मौसम में राजनेता पादरियों के घरों के चक्कर लगाते आसानी से दिख जाते है। कुल मिलाकर विदेश में बैठे ईसाई पोप अपनी हिंदुस्तान पादरियों की फौज की सहायता से न केवल राजसत्ता को निर्देश करते है, अपितु स्थानीय सरकार में दखल देकर अपने हित के कानून भी बनवाते है। नागा समस्या आदि इसी सुनियोजित रणनीति का भाग है। 

स्थानीय आदिवासियों का जीवन ईसाई बनने से नरकमय हो गया है। उसने सदाचार के बदले केवल व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर ली। मगर ईसाइयत ग्रहण कर उसने अपना मूल-धर्म, अपनी सभ्यता, अपने पूर्वजों का अभिमान, अपनी मानसिक स्वतंत्रता, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी जीवन शैली, अपना गौरवान्वित इतिहास, अपनी धर्म खो दिया।    

 हिन्दू समाज का कर्तव्य ऐसी परिवेश में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिन्दू समाज ने कुछ अनाथालय, शिक्षा के लिए विद्यालय तो अवश्य खोले मगर वह अल्प होने के कारण प्रभावशाली नहीं थे। हिन्दू समाज में संगठन न होने के कारण कोई भी हिन्दू नेता शुद्धि कर परिवर्तित आदिवासियों को वापिस शुद्ध करने में प्रयासरत नहीं दिखता। हिन्दू समाज के धर्माचार्य मठाधीश बनकर मौज करने में अधिक रुचि रखते है। ऐसी समस्याओं पर विचार करने का उनके पास अवकाश नहीं हैं। हिन्दू समाज का धनी वर्ग धर्म के नाम पर दिखावे जैसे तीर्थ यात्रा, साईं संध्या, विशालकाय संगमरमर लगे मंदिर, स्वर्ण और रत्न जड़ित मूर्तियों में अधिक रुचि रखता है। जमीनी स्तर पर निर्धन हिंदुओं का सहयोग करने का उसे कोई धर्माचार्य मार्गदर्शन नहीं करता। एक अन्य हिन्दू समाज का धनी वर्ग है जिसे मौज-मस्ती सैर सपाटे से फुरसत नहीं मिलती। इसलिए ऐसे ज्वलंत शील मुद्दों पर उसका कोई ध्यान नहीं है। इस व्यथा का मुख्य कारण ईसाई समाज द्वारा संचालित कान्वेंट स्कूलों में मिली शिक्षा है।  जिसके कारण वे लोग पूरे सेक्युलर होकर निकलते है। 

ईसाइयों ने आदिवासी समाज का नाश केवल भारत में ही नहीं किया। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका सभी स्थानों पर अपनी चतुर रणनीति, दूर दृष्टि , सुनियोजित प्रयास, एक दिशा, संगठित होने के कारण पूरे विश्व पर आधिपत्य बनाया है। हमने समय रहते इस रणनीति से सीख ली होती तो आज हमारे देश के आदिवासी मानसिक गुलाम और विदेशियों की कठपुतली नहीं बनते।

Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

वर-वधू को आशीर्वाद (गीत)