धर्म-मेघ का आवाहन
धर्म-मेघ का आवाहन
वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे ।
पवमान स्वर्दृशम्।।
पवमान ! - हे पवित्रता के पुतले !
वृषा हि असि - तुम धर्म-मेघ ही तो हो
भानुना द्युमन्तम् - एक अलौकिक प्रकाश से चमक रहे
त्वा स्वर्दृशम् - तुझ आत्मदर्शी को
हवामहे -हम प्रजाजन पुकार-पुकार कर बुलाते हैं
धर्म-मेघ प्रजाओं का प्यारा होता है । वही जल जो मोरियों और गलियों में सड़ रहा था , सूर्य के प्रताप से तप-तप कर वाष्प बन गया है । पृथिवी का पानी पृथिवी से ऊपर उठ गया है । उस का सवन हुआ है । अब वह कैसा निर्मल है ! लो ! वह हवा के कन्धों पर चढ़ गया । अब उस का सिंहासन आकाश पर है । चाँद से , तारों से , सूर्य से उस की रात दिन अठखेलियाँ है । जिस पृथिवी ने उसे कुछ दिन पूर्व सन्तप्त कर अपने से दूर हटा दिया था , अब वही पृथिवी आँखें उठाये उस की बाट जोहती है । पृथिवी का गला सूख गया है । उस से आवाज़ नहीं निकल सकती । मंगलमय मेघ ! बरसो ! सूखी भूमि की छाती फिर से हरी कर दो ।
ऐसे ही , योगी इन्हीं गलियों , बाज़ारों में बसने वाला साधारण मनुष्य ही तो था । उस ने प्रकाश का रास्ता लिया । तपस्या की किरणों पर सवार हो गया । ऊँचा उठा । देवयान का यात्री बना । अब मानो वह उस ज़मीन का वासी ही नहीं । उसे जितनी आँच दो , वह उतना अधिक चमकता है , उड़ता है । उस की आकृति ही तेजोमय है । उस के मुख-मण्डल पर एक विशेष प्रकाश है । श्याम-वर्ण धर्म-मेघ चाँद सूर्य की झाँकियों का झरोखा बन रहा है ।
उस की आँखों में सपनों का स्वर्ग बस रहा है । जो बात साधारण जनों की आँखों से ओझल है , वह उस अध्यात्म के द्रष्टा के आगे प्रकट है । स्थूल जगत् उस की दृष्टि में एक सूक्ष्म संसार का बाह्य रूप है । उस की दुनिया भावनाओं की , आशाओं की , दिव्य व्यवस्थाओं की दुनिया है ।
वह पृथिवी दिव्य तत्त्व के किसी ऐसे द्रष्टा , धर्म के मर्म का साक्षात् दर्शन कर रहे ऋषि की प्रतीक्षा कर रही है । रुँधे हुए गले से पुकार-पुकार कर आह्वान कर रही है ।
~ पण्डित चमूपति ( सोम सरोवर )